शनिवार, 15 फ़रवरी 2014

आज का एजेंडा



 
24 घंटे चलनेवाले टेलीविजन पर चलने वाले समाचार चैनलों पर लगातार नई-नई खबरें दिखाने की उम्मीद की जाती है। लेकिन 24 घंटे का वक्त नई-नई खबरों से भर पाना कतई आसान नहीं। हर पल नई खबरें पैदा भले ही हों, लेकिन टेलीविजन चैनलों के लिए उन्हें हासिल और फिर पेश कर पाना मुमकिन नहीं। वजह ये कि हर खबर की अपनी सीमा होती है, अपना वजन होता है, अपनी कीमत होती है, अपने दर्शक होते हैं। ये सब तय करना और परखना तो समाचार चैनलों के संपादकीय विभागों का ही काम है, जो अपनी जरूरत और खासकर अपने दर्शक वर्ग की जरूरत के मुताबिक खबरें चुनते और पेश करते हैं। ऐसे में टेलीविजन के समाचार चैनलों को हर रोज प्रसारण के लिए एजेंडा तय करने की जरूरत पड़ती है ताकि 24 घंटे प्रसारित होनेवाले बुलेटिनों और समाचार आधारित कार्यक्रमों का तानाबाना बुना जा सके। हां, ये भी तय है कि एजेंडे का एक खाका भर ही तैयार किया जा सकता है और समय और परिस्थितियों के मुताबिक उसमें त्वरित बदलाव भी हो सकते हैं। लेकिन बुनियादी सवाल ये है कि किसी भी समाचार चैनल में हर दिन का एजेंडा तय कैसे किया जा सकता है, जबकि खबरों का सतत प्रवाह हो और खबरों की बहुतायत हो।

 

हरेक समाचार चैनल का खास दर्शक वर्ग होता है या यूं कहें कि हरेक समाचार चैनल अपने-आप को खास दर्शक वर्ग पर केंद्रित करके समाचारों का प्रसारण करता है। रोजाना का एजेंडा तय करते हुए ये बात काफी अहमियत रखती है कि 24 घंटे के प्रसारण के दौरान किस टाइम स्लॉट में कौन से इलाके के ज्यादातर लोग किस चैनल को देखते हैं। अगर किसी चैनल को मुंबई में सुबह और देर रात के वक्त ज्यादा देखा जाता है तो उसका जोर सुबह और देर रात के स्लॉट में मुंबई की खबरों पर ज्यादा हो सकता है। यही फॉर्मूला दिल्ली और दूसरे मेट्रो के साथ भी अपनाया जाता है। इसके अलावा, राजनीतिक खबरों को एजेंडे में तभी अहमियत मिलती है, जबकि उनकी सामयिकता और प्रासंगिकता हो। मसलन चुनावी वक्त में अगर किसी बड़े और लोकप्रिय नेता की रैली किसी दिन तय हो, तो समाचार चैनलों का पूरा ध्यान नेता के भाषण पर होता है और उसे लाइव प्रसारित करने की योजना भी बनती है। यही बात बड़े मुकदमों के मामलों पर अदालतों में आनेवाले फैसलों को लेकर भी ध्यान में रखी जाती है। आमतौर पर ऐसा देखा गया है कि धनंजय चटर्जी की फांसी, जेसिका लाल हत्याकांड, प्रियदर्शिनी मट्टू कांड, आरुषि हत्याकांड जैसे तमाम मामलों पर फैसलों के दिन सुबह से रात तक समाचार चैनलों पर कोई और खबर नहीं दिखी। खबर और खबर की पृष्ठभूमि पर ही चैनलों का 24 घंटे का बड़ा हिस्सा खप गया। कुछ ऐसा ही ट्रेंड क्रिकेट से जुड़ी खबरों के मामले में देखा गया है। मसलन, भारत के वनडे मुकाबलों के दिन या सचिन तेंदुलकर के मैचों और उनसे जुड़ी किसी और बड़ी घटना के दिन सुबह से लगातार बुलेटिनों में क्रिकेट ही छाया रहा। इस तरह, दिल्ली-मुंबई, शख्सियत, सियासत, कोर्ट और स्पोर्ट्स की खबरें दिन भर का एजेंडा तय कर सकती हैं और उनमें बदलाव तभी हो सकता है जब अचानक कहीं से किसी बड़े हादसे की खबर आए, वो भी विजुअल और बाइट्स के साथ। किसी हादसे की खबर कितनी बड़ी हो सकती है और एजेंडे में कितनी जगह ले सकती ये तो हादसे की प्रकृति, वक्त, स्थान, परिस्थितियों से तय होता है, लेकिन चुंकि हादसों से मानवीय पक्ष जुड़ा है इसलिए उनकी खबरें देखे जाने की अधिक संभावना होती है लिहाजा उन्हें प्रायोरिटी मिलना लाजिमी है।

 

इस तरह, साफ समझा जा सकता है कि समाचार चैनलों के एजेंडे का फॉर्मूला नंबर- एक है वो खबर जो ज्यादा से ज्यादा बिके। कितनी भी बड़ी किसी शख्सियत से जुड़ी खबर तभी एजेंडे में होगी, जब उसमें 'बिकने' यानी देखे जाने की क्षमता होगी। मसलन, नरेंद्र मोदी या राहुल गांधी या लालू प्रसाद यादव के बयान इसलिए खबर बनते हैं क्योंकि उन्हें देश ही नहीं दुनियाभर में लोग देखना-सुनना चाहते हैं। लालू यादव के चुटीले बयान दिल्ली के साथ-साथ यूपी-बिहार में भी टीआरपी दे सकते हैं, लिहाजा उन्हें एजेंडे में रखा जाता है।

 

इसी फॉर्मूले के तहत खेल और फिल्मी दुनिया से जुड़ी खबरों को भी समाचार चैनलों पर इतनी अहमियत मिलती है कि उनकी आलोचना होने लगती है। क्रिकेट के प्रति दर्शकों की दीवानगी और अपने दौर में सचिन तेंदुलकर के प्रति दर्शकों के लगाव को समाचार चैनल जमकर भुनाते रहे हैं। अगर भारत कभी अच्छी पारी खेलता है, तो भी खूब खबर चलती है और बुलेटिन के बुलेटिन खेल पर कुर्बान हो जाते हैं और अगर भारत का प्रदर्शन खराब रहा तो भी खबर बनती है और खिलाड़़ियों की आलोचना में दिन निकल जाता है। यही बात सचिन तेंदुलकर को लेकर भी रही। जब तक अच्छा प्रदर्शन रहा, वो समाचार चैनलों के आंखों के तारे रहे और प्रदर्शन खराब रहा, तो भी वो आलोचना के बहाने बुलेटिनों में छाते रहे। यही हाल, फिल्मी सितारों का है। अमिताभ बच्चन से लेकर शाहरुख खान, सलमान खान, कैटरीना-दीपिका जैसे सितारे कभी तो अपने बयानों तो कभी अपने बर्ताव और अफेयर्स को लेकर न सिर्फ सुर्खियां बनते रहे, बल्कि टेलीविजन के समाचार चैनलों के आधे-एक घंटे के विशेष कार्यक्रमों के लिए मसाला भी बन गए। य़ानी जो बिकता है वो दिखता है और दूसरे तरीके से कहें तो जो दिखता है ( फिल्मों में, क्रिकेट में, विवादों में) वो खूब बिकता है का फॉर्मूला समाचार चैनलों पर चलता है।

 

एजेंडे का फॉ़र्मूला नंबर 2 है- स्थानिकता यानी बड़े शहरों- दिल्ली-मुंबई और चुनिंदा मेट्रो में समाचार चैनल को देखे जाने के आंकड़ों के हिसाब से भी उन जगहों की खबरों को जगह मिलती है। चुंकि, ज्यादातर राष्ट्रीय समाचार चैनल दिल्ली-मुंबई में ज्यादा देखे जाते हैं और देश के विभिन्न प्रदेशों के लोग दिल्ली-मुंबई में ज्यादा रहते हैं- तो एक तरफ दिल्ली-मुंबई के दर्शक और दूसरी तरफ दिल्ली-मुंबई से जुड़े दर्शकों की नज़र दिल्ली और मुंबई की खबरों पर रहती है। लिहाजा बुलेटिनों में इन जगहों की खबरों को न सिर्फ प्राथमिकता मिलती है, बल्कि उन पर आधे-आधे घंटे के कार्यक्रम भी बनाए जाते हैं।

 

खबरों के एजेंडे का फॉर्मूला नंबर 3 हैं अपराध और हादसे। एक तो हादसों और अपराध से जुड़े मानवीय पहलू और दूसरे उनसे होनेवाले नुकसान की जानकारी में लोगों की दिलचस्पी- ये दोनों पक्ष दर्शकों को हादसों और अपराध की खबरों से जोड़ते हैं। ऐसे में, अपराधों और हादसों की प्रकृति और विशालता को देखते हुए उनसे जुड़ी खबरों को बुलेटिनों में अहमियत मिलती है।

 

आमतौर पर खबर की परिभाषाओं में उनकी तात्कालिकता और सामयिकता अहम है यानी जो कुछ नया है उसमें खबर का पुट हो सकता है। लेकिन, टेलीविजन के समाचार चैनलों के एजेंडे में वो सब कुछ शामिल होता है जिसमें सामयिकता की उम्मीद हो यानी जिससे कुछ नया निकले, कोई नई खबर निकले, भले ही वो अवश्यमभावी हो जैसे कि कोर्ट के फैसलों में ये तय माना जा सकता है कि फैसला पक्ष में होगा या विपक्ष में। खबर तब बनती है जब फैसला उम्मीद के मुताबिक न हो और तब भी जब उम्मीद के हिसाब से ही हो, बशर्ते उससे कुछ ऐसी शख्सियतें जुड़ी हों, जो टेलीविजन पर बिकते हों। इसी तरह, किसी नेता के चुनावी भाषण में आम तौर पर तय माना जाता है कि वो वही बोलेगा जो पिछले कई भाषणों में बोल चुका हो, लेकिन जो भी वो बोले उसे खबर माना जाता है चुंकि नेता लोकप्रिय होते हैं, उनके चेहरे बिकते हैं, लोग ये जानना चाहते हैं कि वो आखिर क्या बोल रहे हैं।

 

ऐसे में, टेलीविजन के समाचार चैनलों में रोजाना दिन का एजेंडा तय करते हुए समाचार चैनलों के संपादकीय विभागों को ये ध्यान रखना पड़ता है कि आज कौन-कौन से प्रमुख कार्यक्रम हैं, क्या-क्या घटित होनेवाला है। इसी के आधार पर ये भी तय होता है कि कौन से कार्यक्रम या घटना पर आधारित खबर चैनल पर कितनी देर तक किस रूप में चलने के काबिल है। अगर किसी दिन किसी अदालत में किसी मामले पर बड़ा फैसला आनेवाला होता है, तो उसके अनुरूप पहले से तैयारी की जाती है जिसके तहत घटना की पृष्ठभूमि बताने से लेकर कोर्ट से संवाददाताओं के लाइव प्रसारण और प्रतिक्रियाएं हासिल करने से लेकर फैसले के विशद विश्लेषण तक चंद मिनटों से लेकर कई घंटों तक की पैकेजिंग और प्रोग्रामिंग की योजनाएं बनती हैं और उन्हें अमली जामा पहनाया जाता है। इसी तरह नेताओं के बयानों और उनकी चुनावी रैलियों से निकलनेवाली खबरों के साथ होता है। पहले से पता होता है कि आज अमुक नेता की अमुक जगह कितनी बड़ी रैली होनेवाली है, तो उसकी तैयारी से लेकर भाषण के लाइव प्रसारण और फिर बयानों पर प्रतिक्रिया समेत तमाम तत्वों को समेटते हुए चैनल पर मिनटों से लेकर घंटों तक के प्रसारण की योजना बनती है।

 

ऐसी घटनाएं जो अचानक होती हैं, जिनके बारे में पता नहीं होता, मसलन हादसे और अपराध, उनकी विशालता और प्रकृति एजेंडे में बदलाव करवा सकती है। और ये समाचार चैनलों पर निर्भर करता है कि वो अचानक होनेवाली घटनाओं को कितनी गंभीरता से लेते हैं और किस तरीके से उन पर प्रतिक्रिया देते हैं। ये सब तब संभव होता है जबकि समाचार चैनलों के संपादकीय विभाग और संवाददाता खबरों के प्रति गंभीर हों, तत्पर हों। किसी बड़े ट्रेन हादसे की कितनी बड़ी कवरेज हो, इसके पीछे कई तत्व काम करते हैं। बहुत बड़ा हादसा होने पर भी टेलीविजन पर कई बार मुकम्मल तरीके से खबरें चलने में काफी वक्त लग जाता है क्योंकि न तो समय से विजुअल हासिल हो पाते हैं, ना ही चश्मदीदों और दूसरे संबंधित लोगों की प्रतिक्रियाएं मिल पाती हैं। अगर, सारी चीजें समय से हासिल हों और कोई और बड़ी खबर चैनल के पास न हो, तो एक हादसा चैनल के कई घंटे के बुलेटिनों में प्रमुखता से छाया रह सकता है।

 

कौन सा दिन किस खबर के नाम रहेगा, ये पहले से तय कर पाना आम तौर पर मुमकिन नहीं होता। लेकिन, बहुधा, ऐसा भी देखा जाता है कि सुर्खियों में जो खबर सुबह से चलती रहती है, वो दिन से रात तक बुलेटिनों में भी प्रमुखता से शुमार रहती है। उदाहरण के लिए आम बजट या रेल बजट के दिन या फिर सुप्रीम कोर्ट के बड़े फैसलों के दिन ऐसा पाया जाता है कि सुबह 6 बजे से लेकर रात 12 बजे और आगे तक की सुर्खियों में एक ही थीम की खबर पहली है और बुलेटिनों में भी वही ज्यादा से ज्यादा जगह ले रही है। दर्शकों को ये बोरिंग भी लग सकता है कि आखिर एक ही मामले की खबर लगातार क्यों चलती है? इसका जवाब तो ये है कि कोई भी व्यक्ति लगातार 6 या 8 घंटे या 12 घंटे तक एक समाचार चैनल नहीं देखता और कुछ वक्त के अंतराल पर जब वो समाचार चैनल देखता है तो उसे नई खबर या खबर के अपडेट की जरूरत होती है, तो जिसने पहले नहीं देखा उसके लिए तो खबर नई ही होती है और जो लगातार देख रहे हैं, उन्हें जरूर कुछ बोरिंग लग सकता है, पर अपडेट भी तो मिल सकते हैं। दूसरा एक पहलू और है कि अगर कोई खबर 'बड़ी खबर' कहलाने के काबिल है, तो आखिर चैनल पर चलेगी भी तो वही खबर, उसके आगे दूसरी किस खबर को अहमियत दी जा सकती है? खबरों के प्रसारण की समझदारी और इस पर फैसला जटिल है और संपादकीय जिम्मेदारी वाले व्यक्ति विशेष के हिसाब से बदलता रहता है। जाहिर है, इसी हिसाब से बुलेटिन का, खबरों का और चैनल का एजेंडा भी बदलता है। जो लोग एजेंडा तय करते हैं, उनमें खबरों के प्रति संजीदगी और समझदारी बहुत जरूरी है। साथ ही ये भी जरूरी है कि वो चैनल के प्रसारण के आंकड़ों, टीआरपी वगैरह से भली भांति परिचित हों और सबसे बढ़कर ये जरूरी है कि उनमें समय और परिस्थितियों और चैनल के फायदे-नुकसान के हिसाब से खबर पकड़ने और छोड़ने का विवेक हो।

 

- कुमार कौस्तुभ