शुक्रवार, 7 जुलाई 2017

सपने और सपने

IMG_20170706_080934098सपने और  सपने
(यह लघु उपन्यास आज से 50 साल पहले, 1967 में लिखा गया था और प्रकाशित हुआ था। लेखक डॉ. रामस्वार्थ ठाकुर तब एमए के छात्र थे। सुन्दरम छद्मनाम से उन्होंने इस उपन्यास की रचना की थी। इस लघु उपन्यास में 60 और 70 के दशक में भारतीय समाज, सरकार और प्रशासन की स्थिति की झलक देखी जा सकती है और आज की स्थिति से तुलना की जा सकती है।)
रहने के लिए घर नहीं है। है क्यों नहीं? पर वही टाट-फूस का घर जमाने से चला आया। लड़के की शादी करनी है। इसलिए घर बनवाना जरूरी है। घर माटी का नहीं। अब ईंट का ही बने। जमाना आगे बढ़ रहा है। गांव में सभी लोग नए-नए मकान बनवा रहे हैं लेकिन कोई भी माटी का नहीं बनवाते! सोचते हैं ‘सै टाटी का एक माटी और सै माटी का एक पक्का’। सो ठीक ही है- बने तो पक्का ही। यही न, सौ-पचास अधिक लगेंगे। कुछ हाथ-हथफेर होगा। चलेगा, लेन-देन तो चलता ही है। ”

“लड़के का जनेऊ करना है। यह तो इसी साल होना चाहिए। एक नहीं, दो लड़के का अरुण और नवल दोनों नव और एगारह के हो गए। अगले बरस बरांठ हो जाएंगे। लोगों में हंसारत होगी। सामाजिक मान-प्रतिष्ठा के साथ-साथ धरम भी तो कुछ कहता है?”
“जनेऊ में कम-से-कम चार सौ लगेंगे। इससे कम क्या लगेंगे और कैसे नहीं लगेंगे। आखिर जग जो है। संबंधियों को नेवतना ही पड़ेगा। उनकी खातिर-बात के साथ-साथ बर-विदाई अलग।”
“लड़के का कपड़ा, पोशाक। पंडितों का पांचों टूक कपड़ा। बारह-चौदह से कम पंडित होंगे नहीं। सबके लिए कपड़े तो चाहिए ही। न अधिक तो एक-एक जोड़ी धोती ही सही। लेकिन अच्छी होनी चाहिए। आखिर दस जगह जाएगा। लोग पूछेंगे……।”
“बाभनों को भोजन देना ही होगा। दही-चिउरा, उस पर पक्की भी चाहिए। आखिर उन्हें ही तो बाबा तुलसी ‘महीसुर’ कह गए हैं। इस शुभ-शुभ काम में उनकी प्रसन्नता जरूरी ही है।”
“इस वर्ष साल से ही सूखा पड़ गया। भदई तो कुछ हुई भी, पर धान साफ नहीं। धान की खेती बड़ी मिहनत से की थी। सड़क पर के खेत में तो जान लगा दी थी। सौ गाड़ी गोबर की खाद और उस पर साल से ही जोताई-कोड़ाई। बड़े बेटे श्याम ने भी काफी मिहनत की थी। पीछे की बात है कैसे गलत कहूं इधर उसका ध्यान घर की ओर खूब लगने लगा है। कैसे नहीं लगे? आखिर पढ़ा-लिखा बालिग हुआ। इसीलिए न बाप-मतारी लड़का पैदा करता है, पालता-पोसता है कि लड़का बड़ा हो तो घर देखे। गांव में सब का लड़का है, लेकिन मेरा श्याम देवता है। भगवान दे तो ऐसा ही। एक ही दे, पर अच्छा दे। बहुवंश न दे। ”
“श्याम ने बड़ी चांक से दरखास्त देकर ब्लॉक से खाद ली थी। दो सौ रुपये की खाद। पर क्या  हुआ? कुछ भी तो नहीं। सारी खेती सूख गई। परमात्मा ने नजर फेर ली;  तो अन्न कहां से हो। खेत में सिर्फ ‘पोरा-ही-पोरा’ है। कल जुगुला को कटनी करने के लिए कहा था, पर कौन जाता है? और जाय भी किस लालच से। इस साल की कटनी में उसे क्या बन पड़ेगा। ऐसी हालत है तो खेत में काम करने के लिए जन भी नहीं मिलेगा। और गिरहस्त लोग भी खेती करना छोड़ देंगे। खेत में जितना लगाओ उतना भी नहीं उपज पाता है।”
“उपज हो कैसे? सुनते हैं जमाना आगे बढ़ रहा है। हम तो कुछ भी नहीं देखते। न गांव के आस-पास कोई अच्छी सड़क है, न बिजली, न सिंचाई की कोई व्यवस्था।”
“किसान बेचारा क्या करे? जान दे? जान तो देता ही है। बैसाख-जेठ की चिलचिलाती धूप में सिर से पैर होकर पसीना बहता रहता है पर ये किसान कितने जीवट के हैं, काम करते रहते हैं। साल भर खेत जोतते हैं पर अगहन में कभी सूखा, कभी मुआर और कभी कुछ। अब खेती पर से हमारा ही क्यों, सभी लोगों का विश्वास उठता जा रहा है। स्वाभाविक ही है।”
“परिवार बड़ा। एगारह जने का। साल भर के खाने के लिए होना ही चाहिए। जैसे-तैसे गांव के लोगों का कर्ज तो चुका दिया। बड़ा लड़का बड़ा होशियार है। वह किसी का एक पैसा रखना चाहता तो है ही नहीं, वह तुरत दे भी देना चाहता है। कहता है- अभी है तो दे देना अच्छा है। फिर घटेगा निस्संकोच उनसे ले लेंगे। सो, सबका तो दे दिया। लेकिन यही है कि अब अपना खर्च भगवान चला दें। कैसे चलेगा?”
“अपरैल में ही ब्लॉक वाले को खाद का रुपया देना है और लड़के के जनेऊ का खर्च। इसका उपाय कहां से हो।”
“समीर कॉलेज में पढ़ता है। भगवान उसका भला करें। उसे तो एस्टाइपेन मिलता है। उससे वह अपना काम चलाता है, साथ ही समय-समय पर कुछ दे भी देता है। सुना है अबकी बार उसे चार सौ मिलेगा। देगा? देगा कैसे? उसको भी तो अगले माह में फॉर्म भरना है। एम.ए. का फॉर्म है- डेढ़ सौ से कम क्या लगेगा?”
“इधर प्रभाकर ने मिड्ल फस्ट डिविजन में पास किया है। एक नरेंद्र है, वह ग्यारहवें में पढ़ता है। उसको भी फीस देना, होस्टल में रहने वगैरह का प्रबंध करना है। हां, तो यह सब कहां से हो?”
“कुछ बीघे जमीन बची है। जमीन तो बहुत थी। लेकिन मैंने उसे बहुत समझ लिया था। ‘बहुत समझने के भाव ने सबका नाश कर डाला। परमात्मा रंज था। बाढ़ आती थी। बड़ी भयानक। बाढ़ में खेत दह जाती। जियें कैसे? सोचा जमीन पर ही कुछ रुपया लेकर जान बचायें। जान रहेगी, तब सब सझ जायगा। आखिर जान ही है, तभी न धन है। सोरह बीघे जमीन धीरे-धीरे भरना रख दिया। आज तक वह वैसे ही पड़ी है। बाढ़ तो बंद हो गयी । सरकार ने एक बार कुछ ख्याल किया- बांध बंधवा दी। वह बांध वरदान बन गयी । पर बाढ़ गयी, तब सूखा आया। एक काल तो दूसरा महाकाल। बाढ़ के जमाने में एक ही फसल अगहनी मारी जाती थी। सूखे में दोनों- अगहनी और बैसाखी। बड़ी समस्या है। कैसे दिन कटेंगे। जीवन तो परमात्मा ले आया। कभी किसी चीज की खासी दिक्कत न हुई। दो लड़के तो बालिग हो गए। चार नादान हैं। इनको भी सयाना, फलता-फुलता देख लेता। लेकिन अब ये ही शेष दिन…।”
“पड़ोस के जमादार हैं। उनका परिवार कैसा है? और संपत्ति कितनी? बस परिवार में तीन से चार तक हैं। दो से चावल-दाल सबेरे, दो सेर शाम को। चालीस बीघे जमीन है। दो जोड़ बैल। एक दुधार भैंसी। एक गाय। लम्बा चासा-पासा। सभी लोग जमदार बाबू कहकर सबेरे-शाम सलामी बजाते हैं। जमदार के पिता कोई धनी आदमी नहीं थे। एकदम गरीब। लेकिन वही दिन फिरा तो आज उन्हीं के लड़के जमादार बाबू कहलाते और गांव के इने-दिने धनिकों में हैं। यों गांव में धनिक ही कौन है। जिनके पास भी धन है, वह या तो कंजूसी का है, या मखीचूसी का या सूदखोरी का और अन्याय, बेईमानी का।”
“यह भनकू सेठ हैं। उनके पास जमीन है तीस बीघा। अच्छी जमीन है। एक लड़का है, एक पत्नी, एक अपने। खाना नाप-जोख कर करते हैं। भैंस है तो उसका मट्ठा अपने व्यवहार में लाते हैं और घी पर्व, त्योहार तथा अतिथि-सत्कार के लिए संचित रखते हैं। बड़े सोच-समझकर पैसे खर्च करते हैं। इसका ही तो फल है कि आज कुछ अनाज और पैसे वाले गिने जाते हैं। पर क्या उन्होंने सूदखोरी नहीं की? आजकल तो धनी बनने का यही सस्ता और सुगम रास्ता है- कंजूस बनो या सूदखोर बनो। उन्होंने ही तो पचीस मन धान का डेढ़ सौ मन और उसी में दो बीघे अंगूठा का नगीना जमीन भरना करा लिया।”
“इधर जमदार हैं तो पूरे मखीचूस। बालू से तेल निकालने वाले। और जालिम सेठ। उसकी तो बात और है। परिवार रावण के समान बड़ा है। दोमंजिला मकान है। परिवार में सब लोगों की अलग-अलग लगानी है। रुपये की अलग, अनाज की अलग। सूद की दर मनमानी है। मौका पर देना और समय पर गारी, बेटी-रोटी और पूरी इज्जत उतार कर ले लेना। तो पूरे पांच-सात हजार का लेन-देन होता है। पर गांव में या गांव से बाहर, किसी का भी उसके प्रति अच्छा विचार नहीं सुनते। इससे पैसा तो बनता है, लेकिन आदमी नहीं बनता। उनका सिद्धांत है- पैसे होंगे तो आदमी मिल जाएगा। पर हम इ, नहीं मानते। इसका अर्थ तो पैसे के मोल आदमी को तौलना हुआ। क्या मनुष्य इतना पतित हो गया है कि अपने अस्तित्व को पैसे के मोल बेचेगा? हमारा विश्वास इसमें नहीं है। परमात्मा जाने?” “और बेईमानी की बात। एक झक्कू सेठ हैं- उनका आदर्शवाद ही निराला है। गांव में दो भाई को अलग करना, फरेबी को रास्ता दिखाना और गांव के मामलों में कानूनगो का काम करना। जमीन लिखाने में तो बड़े ही धुरंधर। जिस जमीन पर उनकी आंख लग जाये, क्या मजाल कि वह जमीन वाले के पास रह जाये? जैस-तैसे, उसे ले ही लेंगे। बेईमान तो पहले दर्जे के हैं। सुना- अपनी लड़की की शादी में एक सोनार से गहना साख पर ले लिया लेकिन मरते दम तक उसको कबूल नहीं किया। बेचारा सोनार छाती में मुक्का मार कर रह गया।”
“धान, भदेआ, सूख ही जाता है। बिना पानी का वह हो ही नहीं सकता। कौन-सी युक्ति लगायी जाय कि काम चले। कुछ सूझता नहीं। एक उपाय तो है- क्यों न ‘अलुआ’ की खेती की जाय? अच्छा होगा। यह तो सब समय सब प्रकार की माटी में हो सकता है। परिवार का भी काम चलेगा। बच्चे नहीं खायेंगे। उन्हें तकलीफ नहीं होनी चाहिए। हम खायेंगे। जन-बनिहार खायेगा। मजदूरी भी, धान की जगह पर दी जायेगी। और बेचने पर रुपये भी होंगे। आजकल रुपया में दो किलोग्राम कंद बिकता है। जहां नहीं, वहां कुछ तो होगा? ”
“लेकिन उसमें भी तो पानी पटाना होगा। पानी पटाने के लिए एक कल हो जाता तो अच्छा होता। लेकिन कल खरीदने में भी तो रुपये लगेंगे। इसके लिए कम से कम दो सौ चाहिए। वह कहां से आयेगा। रास्ते पर की खेत के कोने पर गड़वा दिया जाता। उसी खेत में कन्द ही सही, खूब तो मनी देता। और कन्द ही क्यों- जब पानी हाथ में आ जाये तो फिर जमीन से जो चाहो, पैदा करो। पिआज, तरह-तरह की साग-सब्जी।”
“गांव के लोगों में इस प्रकार की मनोवृत्ति का सर्वथा ह्रास हो गया है कि लोग धान छोड़कर, इस प्रकार का अन्न उजपाने की ओर प्रवृत्त हों जिसका बाजार मूल्य अधिक हो। समाज का मनोविज्ञान अधिक अपने को सोचता है। अपने खाने-पहनने और जरूरत की चीज की ओर अधिक प्रयत्नशील है। यह विचार बुरा नहीं है। अपने विषय में सोचना और अपने लिए करना भी आत्मनिर्भरता का ही एक अंग है। लेकिन थोड़ा थमकर। लेकिन अब वह जमाना थोडे है। अब तो एक शाम अमेरिका के गेहूं की रोटी खानी पड़ती है। देखते हैं दूसरा चारा नहीं है।”
“गांव में अभी लोग इस बात को खूब समझ नहीं रहे हैं और साधन की भी नितांत कमी है। देखते हैं- लोग अगहनी, फिर बैसाखी, रब्बी काटकर सैकड़ों एकड़ जमीन यों ही बेकार परती छोड़ देते हैं। असाढ़ और बरसा के भरोसे। जब आसाढ़ में बारिस होगी, अमुक खेत में, अमुक धान बोया, रोपा जाएगा।”
“भला यह कौन सी बात है? धान नहीं हुआ! रब्बी नहीं हुई तो प्याज, तो गरमी में होता है। उसमें तो जलवर्षा की जरूरत नहीं होती, सिर्फ कुछ पटवन चाहिए। तो पटवन करेंगे। फिर कन्द, धनिया, सौंफ, लहसुन, इत्यादि ऐसी चीजों की खेती करेंगे, जिनकी बाज़ार में भी काफी खपत है कहीं न कहीं देशहित में तो काम आयेगा।”
“किन्तु गांव में कितने लोग इस विचार के हैं? गांव में भी सबका विचार अपना-अपना पेट भरने का है। गांव ही क्यों, शहर ही कौन अच्छा है? वहां तो और सब तरह की झंझटों का, कुकर्मों का झमेला है। लोग नाजायज रास्ते से पेट भरने की धुन में लगे हैं। ऊपर से देखें या नीचे से। सभी जगह एक ही चीज दीख पड़ती है- वह पतनोन्मुख मनोवृत्ति।“
“सरकारी कर्मचारी हैं तो उतने ही चोर। सप्लाई इन्सपीटर हो या ऑफिसर, बिना घूस लिये दुकानदारों को माल का परमीट देगा नहीं। दुकानदार चूंकि घूस देकर परमीट लेता है, इसलिए, वह कुछ ब्लेक करेगा ही। कुछ सामान खपा देगा, कुछ छिपा देगा, और इतने कुछ के साथ आंख का पानी धोकर जनता के सामने निर्दोष-सा खड़ा हो जायेगा मानो क्षुधा-तृप्ति के लिए गाय मारकर अपराध-बोध के लिए समाज के बीच खड़ा हो।”
“और ब्लॉक के लोगों की तो बात और है। राशन ब्लॉक तक आते-आते वैसे ही खतम हो जाता है, जैसे गोमायु, कुक्कुर और गीध की जमात में मरे हुए जानवर के शरीर के पहुंचते होता है। ब्लॉक के प्रधान अधिकारी और अन्य कार्यकर्ताओं के पेट भरे तब न गांव तक राशन जाये? और गांव में भी तो मुखिया जी हैं। मुख के समान नहीं, पेट के समान। बस जो आया- सो सब हजम कर गये। मुखिया को भी घूस का शेयर मिलता ही है। सरकार के हाथ-गोड़ जो-जो कर्मचारी हैं, वे इतने दुर्वृत हो गये हैं कि किसी भी सामाजिक हित की अपेक्षा इनसे बेकार है। और इससे होता क्या है? क्या इन बेईमानों का पेट भर जाता है? नहीं। वही दारिद्र्य और अभाव, उन्हें तब था और अब भी है। आज तक किसी दारोगा का वंश चलते नहीं सुना। किसी सरकारी कर्मचारी का चेहरा खुश नहीं देखा।”
“संतोष नाम की चीज इनके पास है ही नहीं। ईमान, धैर्य और सहिष्णुता आदि सद्गुण और सद्भाव से संन्यास ले लिया है पेट क्या भरे? ”
“कचहरी चाहे देहात के ब्लॉक की हो या शहर के कोर्ट की। बात एक ही है। यह क्लर्क बाबुओं का समाज है। इतना बेईमान तो शायद ही कोई समाज हो। इन बाबुओं की मार से तो जनता-नेता, सभी तबाह रहते हैं। सभी प्रकार के कागज, आवेदन, इन्ही की टेबुलों से गुजरते हैं। और बिना रुपया लिये ये कागज को आगे बढ़ा नहीं सकते, चाहे वह मृत्युदंड से संबंधित कागज हो, चाहे किसी प्रकार की जमानत से संबंधित, चाहे पांच किलोग्राम चीनी से ही। और साथ ही- चाहे वह छोटे ब्लॉक और जिले के कोर्ट, एडुकेशन आफिस के क्लर्क हों या सचिवालय के, या राष्ट्रपति भवन के। घूस लेने का संक्रामक रोग, सबों को लग चुका है। काम बन जाय या बिगड़ जाय- कान पर जूं नहीं रेंगती। और साहब क्यों पूछें- उन्हें भी तो हिस्सा मिलता ही है।”
“इन बाबुओं को अपनी सीमा में स्वायत्त प्राप्त है। काम के लिए इनके पास चाहे कितनी भी प्रतिष्ठा, योग्यता या अधिकार का व्यक्ति क्यों जायें? सभी के साथ एक-सा बर्ताव करेंगे। इनकी मैट्रिकीय शैक्षणिक योग्यता, किसी बनारस विश्वविद्यालय और कैम्ब्रिज से अधिक महत्व रखती है। लेहाज और बात तो अलग।”
“एक शिक्षा विभाग है। इसकी धांधली तो और नहीं सही जाती। मेरे लड़के श्याम ने गत तीसरे वर्ष ही बीए ऑनर्स किया। वह मिड्ल स्कूल का हेडमास्टर है। लेकिन आज तक उसे बीए का ही वेतनमान दे रहा है। श्याम बड़ा दुखी है। कहता है उसी के साथ के जिन लोगों ने सौ-सौ घूस दिये, उनका स्केल मिल रहा है। और यह भी कहता है कि डिस्ट्रिक्ट सुपरिन्टेंडेंट कुछ जातीयता करता है। वह अपने जात के लोगों का काम पहले करता है और कुछ चुने हुए जातवालों के काम में व्यर्थ देर लगाता है। सो, कैसा विचार लोगों का हो गया है। जहां पारिश्रमिक का निर्धारण काम के आधार पर नहीं, जाति, धर्म के आधार पर हो उसके भविष्य का कौन ठिकाना है? ”
“श्याम तो खुद विचारशील है। उसने घूस देने से शपथ ले ली है; और सरकार के सभी ऊपरी अधिकारियों को अपनी स्थिति स्पष्ट कर दी है। उसने अपने शिक्षक संघ में भी अपने साथियों से इस अनैतिक जुर्म की स्तरीय चर्चा की है। सत्य का सोर पाताल में है ऐसा कहा गया है। देखें कब तक ऐसी धांधली चलती रहती है। वस्तुतः यहां तो शिक्षकों का वर्ग बिल्कुल ही उपेक्षित है। जहां देखो वहीं शिक्षकों की बुरी दशा दीख पड़ती है। अब तो शिक्षकों का क्या, कॉलेज के प्रोफेसरों तक की इज्जत खत्म हो गयी। सुना तो, उस दिन मुजफ्फरपुर के कॉलेज में एक प्रोफेसर और एक लड़के को पुलिस ने जान-बूझकर गोलियां मार दीं। और इतना ही नहीं- जगह-जगह गोलियां चलीं, बसें जलीं। मकान लूटे गए। सरकारी दफ्तर जलाये गये। नृशंसता का नग्न नृत्य। अत्याचार, अनाचार का खुल्लमखुल्ला प्रदर्शन। तो किसकी इज्जत बची? ”
“और अफसरों की ही कौन-सी इज्जत है? इज्जत और साहबी रोब का नकाब लिये बैठे अफसर!  उस दिन अखबार में पढ़ा- छात्रों ने एक मजिस्ट्रेट को बुरी तरह पीटा। और कहीं बीडीओ के दफ्तर के कर्मचारियों ने और दारोगा को गांववालों ने और चौकीदारों ने।”
“समाज में न्याय कहीं नजर नहीं आता। छोटा-सा गांव है। एक ग्राम कचहरी है। इसकी ही जरूरत गांव के लिए क्योंकर महसूस की गई? इसलिए न कि लोगों को न्याय के बीच शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व प्राप्त हो सकेगा। किन्तु क्या हुआ। इस ग्राम-पंचायत ने ग्राम्य प्रकृति के निश्छल क्रोड़ में अवस्थित निर्दोष धरा को राजनीतिक छल-छन्द के धूल-धूम से कलंकित कर दिया। आपसी संबंधों से जुड़ा गांव दलों में बंट गया। मुखिया वर्मा जी हुए। वर्मा जी के चुनाव में गांव एक था। कुछ विरोध के बाद भी उन्हें मुखिया चुना गया। किन्तु विरोध हुआ ही। गांव में पार्टी का जन्म हुआ। अब न्याय की बात रही नहीं। जहां दलबंदी है, वहां जायज-नाजायज दल की बात ही ठीक है। ऐसा ही हुआ भी।  गांव के लोगों को मुखिया वर्मा जी से अन्याय की उम्मीद नहीं थी। लेकिन सबकी उम्मीद फरे ही- ऐसा कैसे हो? उम्मीद पर पानी फिर गया।”
“मुखिया के घर के आगे पड़ोस के ठाकुर की एक कट्ठा जमीन थी। न जाने कब से उसमें एक खूंट खूब सुन्दर सौ-सौ हाथ लम्बा बांस रहता आया। कभी किसी की नजर नहीं लगी। कोई सवाल नहीं उठा। उस खूंट में वर्मा बन्धु के ही मवेशी बांधे जाते। ठाकुर कुछ नहीं कहते। वर्मा बन्धु से उनकी अच्छी पटती और खूब मरउअत में दिन कटते। लेकिन कुछ दिनों बाद रंग बदला। वर्मा जी के पटिदार की जमीन, ठाकुर के बांस से ही लगी थी। नापी में उसने सिद्ध कर दिया कि वह बांस की खूंट उसकी जमीन में है। दोनों पार्टी से अमीन बुलाये गये। नापी होने लगी। दर्शकों, झगड़ा जोड़ने वालों और कुछेक दिखावटी पंचों का जमाव हुआ। नापी ठीक होती आ रही थी कि मुखिया के छोटे भाई वर्मा बन्धु ने उसमें बेकार अड़चन डाली। बात बिगड़ गई। फिर दूसरी-तीसरी नापी के बाद – अन्ततः मुखिया संयुक्त सभी लोगों ने बात सिद्ध कर दी कि बांस की खूंट ठाकुर की नहीं, वर्मा के पटिदार, सुमेसर वर्मा की है। ठाकुर की एक न चली। बेचारे क्या करते। हाय-हाय करके रह गये। मुखिया की आंख आगे यह सब होता रहा, लेकिन मुखिया ने जुबान तक नहीं हिलायी। ”
“इस समाज में औचित्य कहां है? कुछ सांच भी कहो- यदि कमजोर हो, मारे जाओगे। और औचित्य के लिए लड़ने की शक्ति, आत्मबल और नैतिक बल ही किसके पास रह गया है? आज तो पुरुष है, लेकिन पौरुष नहीं है,न किसी के पास चरित्र है, न चरित्रबल। न चारित्र्य है न चारित्र्य का ओज। व्यक्ति की सीमा इतनी संकीर्ण हो गई है कि अपने-अपने में जीने-मरने की धुन सवार है। पास ही क्या अन्याय हो रहा है, क्या न किये जाने लायक किया जा रहा है, किन्तु कोई बोलनेवाला नहीं। फलतः कमजोरों की बुरी हालत है और अच्छे लोगों की भी। आज समाज का जैसा मनोविज्ञान है- इसमें दो तरह के लोग ही अधिक पीड़ित और संत्रस्त हैं- या तो सब तरह से कमजोर या अतिशय सात्विक और सद्विचार परायण ”
“गत वर्ष सरयू के नाना ने उसके नाम दस बीघे जमीन लिख दी। वे स्वर्ग सिधारे अपने पीछे एक बूढ़ी को छोड़कर। उस बूढ़ी के हाथ में दो बीघे जमीन छोड़ गए। सोचा होगा- बूढ़ी है, कुछ हाथ में रहेगा तो उस लालच से भी परिवार वाले बुढ़ापे में तकलीफ नहीं देंगे। लेकिन क्या हुआ? गांव के पटवारी बाबू ने सुना, वह जमीन उनके नाम की है, जिसको उनके भाई ने अपनी पत्नी के अधिकार में छोड़ दिया था। अब क्या था? गांव के गुरुओं को जमा किया। और सरयू तथा बूढ़ी से जबरदस्ती, मार-पीट, उजाड़ देने की धमकी देकर, आखिर छाप बनवा ही ली। ”
“ऐसा तो समाज है। किसी का नहीं। हालांकि मुखिया हों या छोटे वर्मा, या पटवारी बाबू, या कोई- सब लोगों से हमारी अच्छी पटती है और हमारा सबके प्रति अच्छा विचार रहता है। लेकिन उन लोगों का कैसा सुभाव है- सदा ही जलना, बुरा सोचना और जैसे-तैसे कमजोरों के पीछे पड़े रहना। उस दिन प्रभाकर का रिजल्ट निकला। लड़का है, मेहनत की थी। परमात्मा ने चाहा- फस्ट में पास किया। इसके लिए भी लोगों को महादुःख! और तो और उसके हेडमास्टर को भी काफी तकलीफ। भला देखो तो- कितना बुरा विचार हो गया है। एक जमाना था जब ‘गुरु गुड़ चेला चीनी’ की कहावत चरितार्थ हो तो गुरु गौरव मानते थे। आज तो शिक्षकों का चरित्र पतित और आचरण भ्रष्ट हो गया है।”
“आज हमारा समाज अतीव रुग्ण है। कम से कम मानसिक दृष्टि से तो अवश्य ही। ग्राम और शहर- दोनों ही क्षेत्रों में नैतिक ह्रास और मनोबल के अस्वस्थ्य के दृष्टांत नित्य नये कुकर्म के उदाहरणों में देखे जा रहे हैं। अत्यन्त नीचे स्तर की ईर्ष्या, विरोध, विभेद, झंझट और गुटबंदी ने एक ओर जहां सामाजिक ऐक्य और सुरक्षा के विघटन का कार्यारम्भ कर दिया है, वहीं दूसरी ओर संकीर्ण और सीमित वैयक्तिक स्वार्थ और अहं ने व्यक्तित्व के प्रति आस्था को उन्मूलित करने का संकल्प ले लिया है। ग्राम्य और शहरी- दोनों समाज में इस प्रकार के असांस्कृतिक और परस्पर विरोधी वातावरण का सृजन हो गया है, जहां औचित्य, सद्भाव और संघटन नाम की चीज ही नहीं रह गई है।”
“बृहत्तर मानव-समष्टि में जी रही मानवता, ग्राम्य और नागरिक जीवन में परिव्याप्त शोषण, उत्पीड़न और अत्याचार- प्रभाव से सिसक रही है, रह-रहकर चीख रही है। लेकिन आज इसकी चीख सुननेवाला कोई नहीं है।”
“बहुत सारे लोग जी रहे हैं, पुत्र, पत्नी, परिवार, काम की उलझनों में जी रहे हैं। लेकिन मैं उन्हें जीवित नहीं मानता और न जीने की इस प्रक्रिया को जीना ही। सच्चे अर्थों में आज सभी अपनी लाशें ढो रहे हैं। सारे लोग किसी-न-किसी प्रकार के संत्रास की यंत्रणा से आक्रांत हैं। हृदय में विषाद की ऊष्मा है, इसलिए आज हर दिल इंसान ऊपर से उदास है। किसी न किसी प्रकार का असंतोष लिये सूब जी रहे हैं।”
“आज मृत्यु हमें संवेदित नहीं करती, दुर्घटनायें हमें नहीं चौंकातीं, और किसी प्रकार की अनहोनी जैसी चीज नहीं रह गई है। जीना एक यांत्रिक आयास मात्र रह गया है, और मानव एक यंत्र। आखिर यही न कारण है कि मानवी गुणों का विलोपन इतनी शीघ्रता से हो रहा है? पहले किसी परिवार में एक व्यक्ति मरता था, तो बारह दिनों तक उसके परिवारवालों के रोने की करुण ध्वनि से सारा गांव दहलता। लेकिन आज, सौ-दो सौ लोग हर रोज मर रहे हैं, किन्तु कहीं- किसी के कानों पर जूं नहीं रेंगती। चलो यह तो आम बात है। ”
“लगता है- मानव अस्तित्व और मूल्य नाम की कोई चीज अब नहीं रह गयी है, या अब नहीं रह जायेगी। जीवन मूल्य के प्रति बड़ी ही अजीब उदासीनता लोगों में घर कर गई है। और जैसे-तैसे सब जीते रहने की उद्दाम लालसा को पालते हुए चले जा रहे हैं।”
“आज हम, अपेक्षाकृत अधिक दुखी हैं। अनेक समस्यायें ऐसी हैं जिनका सीधा संबंध व्यक्ति से है। और सच्ची बात तो यह है कि समाज की सारी समस्यायें व्यक्ति के पेट से पैदा होती हैं। व्यक्ति ने ही भगवान को बनाया और उसको ले डूबा। विज्ञान को बनाया और उसको अभिशाप सिद्ध कर दिया। समाज बनाया और उसे भी ले बूड़ने पर तुला है। यह व्यक्ति, आज की सारी समस्याओं की जड़ है।”
“गीता में श्रीकृष्ण ने इसीलिए सब्यसाची के ब्याज से व्यक्ति सुधार पर बल दिया है। अर्जुन को कर्मनिष्ठा या कर्मण्यता का, जीवन में प्रवृत्ति का, स्थितप्रज्ञ का, आदि जो भी उपदेश दिया गया है, उसका संकेत ‘व्यक्ति’ की ओर ही है। हर आदमी यदि अपनी भूल सुधार करने लगे. अपने अपव्यय को रोकने लगे, भावात्मक एकता को समझने लगे, तो फिर, समस्या रह ही नहीं जाये। परिवार की छोटी परिधि से राष्ट्र और विश्व के बड़े क्षेत्र तक – भविष्य, व्यक्ति के इस दायित्व को आशापूर्ण नजरों से देख रहा है। कब वह सुंदर काल आयेगा, जब हर व्यक्ति अपने दायित्व समझेगा और हर लोग सुखी होंगे।”
“हमारी उन्नति तो सबको अखरती है। अभी उन्नति ही क्या हुई? हां यही परमात्मा खुश हैं, तो सभी लड़के पढ़ रहे हैं, सबके-सब अच्छे और होनहार हैं। हमारे पास तो दूसरा धन नहीं है, ये ही- पांच-छव लड़के जो हैं- ‘सवांगी धन’ कहा गया है। अब देखें इन सबको फलते-फुलते – नजर भर खुशहाल देख पाते हैं कि नहीं। जीवन के शेष दिन…..”
“असल में संसार बहुत बड़ा है और इसमें बहुत तरह के लोग हैं। लेकिन इनमें बहुत सारे लोग ईर्ष्यालु और डाही हैं। दूसरे की उन्नति देखना वे चाहते ही नहीं। लेकिन परमात्मा सब सुनता है। व्यावहारिकता चाहे जो हो- सत्य यही है कि दुनिया में जो जितना दलित है, उपेक्षित है, गिरा हुआ है। वह उतना ही ऊंचा है, जो जितना गरीब है, वह उतनी ही विभूतिपूर्ण महत संभावना को छिपाये बैठा है। कहा नहीं जा सकता, किस समय में कितनी बड़ी घटना संभव है। व्यक्ति को अपना ‘सत’ बनाये रखना चाहिये। सत से ही जमीन टिकी हुई है, सत से ही सूरज तपता है। लोगों की भलाई और सेवा की भावना रखनी चाहिये। संतोष और धीरज का फल मधुर होता है। परमात्मा सबकी पूरी करते हैं।”
“कथा-कहानी ने मानव के दुःख को भुलाने में, सदमा की घड़ी को आसानी से काटने में बड़ी मदद की है। लगता है, दुःखी क्षणों को काटने के लिए ही आदि मानव चित्र-विचित्र कथायें गढ़ा करता था। पक्षी, गीदड़, मूसा, बानर, भालू, बाघ, हरिण, सिंह, खरगोश, राक्षस और पथिक की कथायें।”
“अरुण! एक कथा कहो- लघु कथा ही। मन नहीं लगता। कुछ आप बीती, कुछ पर बीती, कुछ जग बीती, सोचते-सोचते मन भारी हुआ जाता है। और व्यक्ति क्या सोचे और काहे को सोचे। जैसे सब जीते चले जा रहे हैं, वैसे ही जी लें। देखो भगवान कब तक ऐसा दिन दिखाते चलते हैं। यह गरीबी, अकाल, महंगी और जीवन के शेष दिन….”
“भोला गरीबन के दिन
कइसे के कटतई भोला गरीबन के दिन।
…………………………………
……………………….”
“पिता जी! आज इस्कुल में मास्टर साहब ने बड़ी मनलगु कथा सुनायी और कहा कि अपने-अपने घर में सुनाना। सो पिताजी-
“एक गांव था। गांव में साधारणतः किसान थे। अपना कमाना-खाना और जीना, यही इनका अध्यवसाय था। ‘कुशासक’ वहां का राजा था। उसके आतंक से सारे किसान तबाह थे। उसके लोग दिन-दहाड़े बेचारे किसानों को लूट ले जाते। सत्य को धोखा मानते। धर्म को ढोंग कहते हैं।”
“और अपने विचार के खिलाफ बोलने वालों को बांधकर कोड़ा से पीटते तथा गरम लोहे की संड़सी से अंग-अंग दागते। सो, कोई कुछ बोलता नहीं। हवा की सांय-सांय के साथ लोगों की हाय-हाय गूंजती रहती। समय के अनुक्रम से – उसी गांव का एक आदमी ऐसा निकला, जिसने उस दुराचारी ‘कुशासक’ का अन्त करने का संकल्प ले लिया। प्रारंभ में तो उसे उस जालिम ‘कुशासक’ को दबाने में बड़ी दिक्कत हुई। लेकिन, वह मानव का अर्थ मानव के रूप में लगाता था। अतः कुशासनजनित आतंक के अन्त का उपाय ढूंढ निकाला। आग में कुन्दन की तरह वह व्यक्ति दप-दप करता बाहर निकला। उसका चरित्र पूत था; वाणी में सत्य का मार्दव था और कर्म में निष्ठा की आस्था थी। उसका एक काम गांव से लेकर आसपास के संपूर्ण जनपद के लिए अनुकरणीय हो गया। ”
“तब क्या हुआ ? अरुण!”
“तब वही- पिताजी! आतंकियों ने उस सत्पुरुष के सामने आत्मसमर्पण कर दिया। कुशासन का अन्त और दुर्वृतों का सुधार – एक ही बार हुआ। वह व्यक्ति उस गांव का ही नहीं- अपनी संपूर्ण पीढ़ी का नेता, महान राष्ट्रधर्मी प्रमाणित हुआ और लोगों ने उसे एक स्वर से ‘राष्ट्रपिता’ की संज्ञा से पुकारा! ”
“पिताजी! वह साधारण व्यक्ति गुजरात के पोरबन्दर के साधारण बनिया परिवार का एक व्यक्ति ‘मोहन दास’ था। भारत के राष्ट्रपिता प्रातःस्मरणीय गांधी, बापू और महात्मा!!!”
“बाबू जी फिकिर मत कीजिए। देखिये ये लोग कब तक इस प्रकार तंग करते हैं। सब दिन एक ही आदमी का जमाना नहीं रहता। जो कल्ह राजा था, आज भीख मांगता है। एक दिन हम ही लोग इतने कबूगर होंगे कि डर के मारे कोई मुंह नहीं उठायेंगे। और सांच बात नहीं मानेंगे? भंइसी से खेत चरा देंगे? दिन-दहाड़े सामान उठाकर ले जायेंगे? जबरदस्ती बैल खोलकर हर में जोतवा लेंगे। मतारी-बहीन को बेकसुर गारी देंगे। ‘बड़का दादा’ कहा करते थे- ‘सबै दिन धाने मांहे रास्ता नहीं रहता’। अभी चुपचाप देखते रहिये। और नहीं कोई, भगवान तो सब देखते हैं। समीर भइया को पास तो होने दीजिए। उनकी नौकरी लगते ही घर को रुपये-पैसे की दिक्कत नहीं रह जायेगी। तब लाठी से हो तो, रुपये-पैसे से हो तो- सब फरिया ही लेंगे। आखिर ऐसे कोई कब तक सहेगा?  अरुण ने बालकोचित निर्भिकता के साथ कहा। ”
“अरुण के पिता ने विचार किया- ‘अरुण कितना सच कह रहा था!’ उन्हें अपने परिवार की विपन्नता और गांव के अनपेक्षित विरोध के अंत की आशा समीर में दिखाई पड़ी।”
“समीर उनका दूसरा लड़का था। गांव में या गांव से बाहर किसी को भी समीर के खिलाफ में कुछ कहते नहीं सुना। जहां सुनें वहीं समीर की चर्चा। इस जमाने में भी समीर कैसा लड़का है? जमाने का कुछ असर नहीं। भगवान दें तो वैसा ही- एक ही दें। गांव के बूढ़े अपने लड़के की बदचाल देखकर कहते हैं।”
“अब उनके घर का दिन फिर जायेगा। पटिदार बड़ा दबाते थे। अच्छा, सबका भला हो! बड़ा सीतम सहकर उसका बाप उसे पढ़ा रहा है। लेकिन लड़का भी पढ़नेवाला है। खर्च भी करे तो वैसे ही लड़के पर।”
“समीर बड़ा सुशील, विनम्र और शान्त प्रकृति का लड़का था। किसी ने कभी उसे व्यर्थ वाद-विवाद में समय नष्ट करते नहीं देखा। इसी कारण वह अक्सर छात्र-मंडली से बाहर रहता था। हर घड़ी उसे किसी न किसी काम की धुन लगी रहती। काम उसे कोई दिया जाता- वह पूरे मनोयोग से करता। घर का बहुत-सारा काम वही देखता। पिताजी बाहर-बाहर रहते। वह अकेला – घास गढ़ता, नाद भरता, कुटी काटता, भंइसी चराता, गोबर काढ़ता और इतने सारे के बाद पढ़ता भी था। वह अपने पिताजी को काम करने नहीं देना चाहता था।”
“लेकिन इसके बाद भी परिवार में उसकी हालत अच्छी नहीं थी। पिताजी उसे मानते थे, दूसरी बूढ़ी दादी। लेकिन घर में इनका कोई वश नहीं चलता।”
“उसके परिवार में एक दूसरी स्त्री थी उसकी विमाता। उससे समीर की नहीं बनती थी। वह समीर को समय पर खाना नहीं देती। खाना देती तो लाख झिल्ली झाड़ती। खाने को जली-कटी अधपकी रोटियां देती। समीर कुछ नहीं बोलता। बाहर समीर कितना भी काम अच्छा क्यों न करे। लेकिन रोज सुबह-शाम उसे कुछ-न-कुछ सुनना ही पड़ता। भंइसी चराने के लिए उसके डर से समीर एक घंटी छोड़कर चला आया करता। बहुत सारे काम वह अद्भुत ढंग से सम्पादित करता। पड़ोसी देखकर दंग रह जाते।”
“वर्ग में वह सबसे अधिक पाठ याद करता। शिक्षक उसे बहुत मानते। शिक्षकों की सहानुभूति से समीर को बल मिलता। उसे घर पर लाख तकलीफ होती तो क्या- उसका उसे कोई गम नहीं। वह रोता भी, हंसता भी और गंभीर भी हो जाता।”
“कोई भी ऐसा दिन नहीं होता- जब एक-दो बार समीर नहीं रोता हो। रोने से उसका भार हल्का होता। कभी-कभी वह जान-बूझ कर रोया करता। वह बाहर रहता तो उसको बहुत सारे लोग अपने लगते, लेकिन, संध्या होते-होते ज्योंही वह दरवाजे से बरामदे में पैर रखता, उसे लगता वह वैसी जगह पर चला आया- जहां उसका कोई नहीं है। वह अपने छोटे भाइयों से बातचीत किया करता। ”
“समीर की अध्ययनपरक प्रगति देखी गई। लेकिन विपत्ति ने कभी उसका पीछा न छोड़ा। पैसे की दिक्कत तो उसे रहती लेकिन इसे वह किससे कहे? और क्यों कहे? उसे सद् मित्रों का भी सदा अभाव खटकता। इन परिस्थितियों ने समीर के भीतर एक संवेदनशील और भावुक हृदय का निर्माण करना शुरु कर दिया था। अब समीर का हृदय आघात को सहता भी था और उससे प्रतिक्रिया भी करता था। उसके हृदय विपंची के निस्पंद तार को, अब ये परिस्थितियां मंद-मदिर रव से मुखर किया करतीं। अप्रिय घटनाओं को वह विचार के विविध कोणों से देखा करता। अपनी प्रतिक्रियाओं को वह एक क़ॉपी में अंकित करता- कविता में, कहानी में, घटना के रूप में। अब वह एकान्त कल्पना लोक का विहग हो गया था। ”
“आई.ए. के एक सत्र में उसने दो महीने तक एक ट्यूशन ठीक कर लिया था। एक पेशकार साहब के दो लड़के को पढ़ाता-खाता, पढ़ता। सोचा, सावन-भादो का महीना घर में चाउर-दाल की कमी। होस्टल के मेस के लिए चाउर कहां से आयेगा? और जब घर का चाउर निकल जाय तो घर के लोग क्या खायें- लड़के, बूढ़े दादा।”
“वह जानता है कि पिताजी बड़ी कठिनाई से पढ़ा रहे हैं। अतः वह भरसक इस प्रयत्न में रहता कि उसे पिताजी से कम-से-कम पैसे मांगने पड़ें। यहां तक कि वह बाहर से घर जाता – तो लौटते समय घर से चुपके से चल देता, पिताजी से रिक्सा, बस का किराया तक नहीं मांगता। वह जानता है उसके पिताजी को पैसे ही कहां हैं? अभी मांगूं तो कर्ज के लिए सात दरवाजे जायेंगे। सात जगह मुंह खोलेंगे। कोई दे-न-दे लेकिन हंसेंगे तो सभी। वह चुप-चाप चलता चला जाता…। घर से बीस किलोमीटर दूर। न पैर में जूता, न सर पर गमछा, न हाथ में छाता।….”
“समीर अपने साथियों से काफी दूर रहता। उसका मन वहां नहीं लगता। परिस्थिति के तकाजे को वह बिना शर्त पूरा कर रहा था। ”
“ट्यूटर समीर भूमि पर सोता था। दो महीने की अवधि में उसने कभी जलपान तक नहीं किया। वह दिन-रात अपने घर की सोचता। अपने बीमार भैया को।”
“उसके भैया विगत दो महीने से बीमार थे। उन्हें वह बीमार ही छोड़ आया था। चलते समय उन्होंने समीर को बड़ी ममता भरी नजर से देखा था न, वह अब न रहेगा। भैया की क्या हालत होगी। विमाता उन पर भी बोलती होगी और परिवार की आर्थिक परिस्थिति। भादो का महीना।”
“परीक्षाफल अच्छा होता गया। प्रगति तो स्पष्ट न हुई थी, आषाढ़ के बादल घिर रहे थे-बरसा की संभावना से गरीब किसान का मन उत्फुल्ल हो रहा था।”
“बीए में समीर ने खूब अच्छा नहीं किया। इसका उसे हार्दिक दुख था और इस अप्रत्याशित आघात का बुरा प्रभाव उस पर कितने रूपों में पडा। हां यही था- कि गांव मध्यम वर्ग के लोगों का था और गांव में पढ़े-लिखे लोग ही कौन थे, दो-चार, बस। समीर के परीक्षाफल से गांव के नये पढ़े लिखे लोगों में एक हलचल-सी मच गई, वैचारिक लहर। कुछ लोग खुश भी हुए, कुछ आश्चर्यित भी, कुछ मन-ही-मन जले भी।”
“एमए में उसके भैया ने नाम लिखा दिया। नाम लिखाने की चर्चा समीर ने परिवार में नहीं की। उस परिवार से जिसमें बाहरी आमदनी का कोई खासा अच्छा जरिया न हो, सौ-डेढ़ सौ का माहवारी खर्चा कहां से कैसे दिया जायगा? एमए की पढ़ाई है। बड़े शहर का रहन-सहन। न कुछ, साफ-सुथरा तो रहेगा। और न कुछ कैसे, आखिर अब भी रहने का ढंग न सीखेगा तो कब सीखेगा? और रहन-सहन की बात तो अलग, बिल्कुल जायज और अनिवार्य खर्च डेढ़ सौ पड़ जायगा? सिनेमा, होटल, रिक्सा यदि जोड़े तो दो सौ। ये विचार समीर के मानस को मथते रहते और कभी-कभी तो वह एकदम अकुला उठता। नहीं, वह नहीं पढ़ेगा। पढ़-लिखकर जब नौकरी ही करनी है तो अब ही नौकरी करेगा। उसी का साथी जमादार भाई साले से दो-सौ उठा रहा है। न, वह,पढ़ेगा, घर की पूंजी बेचकर नौकरी के लिए मारे-मारे फिरने से अच्छा है पढ़ना-लिखना छोड़कर पहले कोई नौकरी करना।”
“यदि नौकरी न मिली तो जिस रुपये से पढ़ेंगे, उसी से व्यवसाय करेंगे। इन दिनों व्यवसाय में बड़ा लाभ है। छोटी-सी दुकान पर बैठे-बैठे नन्हकू साव मालोमाल है। सबसे अच्छी वणिक्वृत्ति ही है।…”
“लेकिन इसी कारण पढ़ाई से उसका पिंड छुटने वाला न था। सब लोगों को विश्वास था – समीर पढ़नेवाला है, अतः पढ़े। उसको पढ़ने से न रोका जाय। जैसे भी हो खर्च दिया जाय। सभी विचार से जोर लगाते। समीर कैसे न कहता। असल में न कहने का उसका इरादा भी तो न था। ऐसे कितने लड़के हैं जो अपने मन से पढ़ाई छोड़ना चाहते हैं?”
“समीर कॉलेज छात्रावास में रहता था। अब वह एक ऐसे शहर में चला आया था, जहां उसके सभी अपरिचित थे। वह संवेदनशील था। परिस्थिति के छोटे-मोटे घात-प्रतिघात उसे आन्दोलित करते रहते। छात्रावास की एकाकी कोठरी में समीर अकेला बैठा, वहीं से अपने अतीत को निहारा करता। अतीत के खंडहर में उसे जीवन की अवशिष्ट विभूतियां संचित मिलतीं। स्मृति के आवतरण को वह जितना ही अनावृत करता- उसमें उसे उतना ही नया संसार दिखाई देता।”
“उसे अपना घर न भूलता। यों अपना घर भूलता ही किसे है? एक खग भी अपना घोंसला नहीं भूलता। समीर अतीत को जीवन की मूल्यवान विभूति समझता। और सदा ही अपने बिखरे अतीत के हरे-पीले, लाल-नीले, सूखे-भींगे चित्रों को जमा करता। वह जब कभी कुछ अनावश्यक खर्च करने चलता- उसके हाथ रुक जाते। वह सोचता यह अपने भैया के एक दिन के वेतन का अमुक भाग खर्च कर रहा है। साथी लोग, उसके इस विचार पर हंसते, उसकी खिल्ली उड़ाते।”
“वह कुछ नहीं बोलता। उसे याद आता- पिताजी के पास ओढ़ना का कम्मर नहीं है। अरुण को कमीज नहीं है। नवल को हवाई चप्पल नहीं है। अनामिका को गांती, फराक। बूढ़ी दादी का इस साल चादर नहीं बदला गया है। समीर अपने परिवार के अन्य लोगों से औसतन कुछ भी अधिक नहीं रखता। रहन-सहन से कुछ लोग ही उसे एमए का छात्र कह सकते थे। उसकी वेश-भूषा ठेठ देहाती किसान के बेटे की तरह थी। रुपये-पैसे की बात वह परिवार की परिस्थिति के संदर्भ में ही सोचता।”
“वह देखता- उसी के अगल-बगल के लड़के कितनी अच्छी पोशाक में रह रहे हैं। उसका मन नरम होता, वैसा करने को चाहता, पैसे भी होते। लेकिन वह अपनी शुष्क बौद्धिकता के विद्युतीय प्रताड़नादण्ड से हृदय की कोमल भावनाओं को आतंकित और शान्त किये रहता।”
“उसे एकांत कोठरी थी। कुछ किताबें, कलम, लालटेन और एक मां दुर्गा की तसवीर बड़ी ही रुचिर। लेकिन उसी काली कोठरी से वह दुनिया को दूर-दूर तक देखा करता। वह अपने राष्ट्र-जीवन के विविध पक्षों को विभिन्न दृष्टि से देखा करता। उसके सोचने की दिशा बड़ी विलक्षण होती। वह अपने विषय में बहुत कम सोचता। या तो वह परिवार के बारे में सोचता या राष्ट्र के। संसार, ईश्वर, जीवन-मरण, आदि के प्रश्न भी उसके चिंतन को अभिभूत करते।”
“समीर को कोई कहता तब उसे पता चलता- उसकी कमीज फट गयी है या दाढ़ी बढ़ी है। कभी-कभी वह साहित्यकारों के जीवनक्रम पर एकबारगी सोच जाता। कभी-कभी वह कहा करता- इनके चिंतन से एक प्रकार का बल मिलता है।”
“जब प्रकृति के उपजीव्य को कंपाता हुआ, निर्मम जाड़ा आता, तो वह देखता- ‘जाड़े की रात दरवाजे पर के ओसारे में नीचे ही पोरे की बिछावन पर पिताजी किस प्रकार एक ही चादर ओढ़े सो रहे हैं। और बगल में छोटे-छोटे भाई किस प्रकार धान की चटाई में अपने तन को छिपाये सो रहे हैं। जाड़े की रात की पछेआ हवा से वे कांप भी रहे हैं, सिसक भी रहे हैं और पिताजी के तो दांत बज रहे हैं।”
“वह देखता- उसके खेत किस प्रकार सूख गये हैं? इसमें इस वर्ष क्या होगा! मात्र पोरा ही तो। वह देखता- उसी खेत में उसका जन जुगुला और सिउरतना रखवारी करने गया है। सो रहा है। लेकिन किसी को ओढ़ना नहीं है। एक ही फटा कम्मर है जिसमें दोनों लिपटे हैं। कभी-कभी जागते और आग जलाकर, पोरा फूंक कर ताप लेते। खईनी-तमाकू खाते सो जाते। उनको भी काफी जाड़ा लगता होगा। उनको आस लगी रहती- अबकी बार समीर बाबू से कमीज लेंगे। चद्दर लेंगे, फटी-पुरानी धोती, गंजी पर….। ”
“समीर किसी भी कीमत पर अपने परिवार की समस्याओं को नजरअंदाज नहीं कर पाता। वह देखता- उसके घर में खाने के लिए लड़के किस तरह झगड़ते और दादी, भाभी, चाची में छोटी-छोटी बात के लिए मुंहफुलउवल होता। हुक्का-पानी तो बन्द रहता ही। भारा-भरी से कितने-कितने दिन चुल्हा नहीं फूंका जाता। ”
“वह देखता- उसके दरवाजे पर का इनार अभी तक उसी तरह धंसा हुआ है। दादा का खुदवाया हुआ इनार है। सबके रास्ते पर पड़ता है। जो जाते, वही कहते- ‘सब करते हैं मगर इनार नहीं बनवाते।’ भादो में धंसे-धंसे से हो जाता है और बइसाख में सूख जाता है। इनार पर कम से कम जांघ भर का मुड़ेर भी हो जाता तो अच्छा होता- ऐसे हर दम डर बना रहता है, किसी का बैल गिर पड़े, किसी की बकरी! और उस दिन ऐसा हुआ ही। कोदई का एक-लौता लड़का जाने कैसे इनार में गिर ही पड़ा। मुखिया ने लाख आश्वासन के बाद नहीं बनवाया। विकास योजना के अंतर्गत बनवाये गये कितने कुएं धंस गये, लेकिन एक धंसे हुए कुएं को नहीं बनवाया जा सका।”
“समीर घर बहुत कम जाता, वह जानता, उसके जाते ही परिवार के लोग बड़ी-बड़ी आशायें लेकर दौड़ेंगे। मगर वह क्या देगा? वह तो कमाता नहीं। पढ़ता है। जब वह परिवार की हालत देखेगा, उसका कलेजा विदीर्ण हो जायगा।”
“जब घर के चिंतन से उसका मन भारी होने लगता, तब वह कल्पना लोक में जाता। साहित्य में उसकी रुचि थी। प्रसाद, प्रेमचंद, निराला, महादेवी, जैनेंद्र, अज्ञेय, यशपाल, अश्क, रेणु, उग्र के संस्मरण से उसके भीतर साहित्यकार का जन्म होने लगा था। पुस्तक लिखने की योजना बनाने में वह तेज था। अपनी पढ़ाई के व्यतीत वर्षों में समीर ने दो-तीन पुस्तकें लिख डाली थीं।”
“एमए में उसे ‘गोदान’ पढ़ना था। इन्हीं दिनों उसे ‘गोदान’ पढ़ने का मौका मिला। उसने ‘गोदान’ में उत्तर भारत के ग्रामीण किसान के संघर्षशील जीवन को देखा। लेकिन ‘गोदान’ को पढ़ते समय उसने एक और बात पर गौर किया। 1936 के प्रेमचंद ने गांव और शहर के जीवन में लोगों के रहन-सहन विचार-दिशा में जो गुण-दोष लक्ष्य किये थे वे सारी चीजें आज भी उतनी ही तेजी से समाज में जी रही हैं, और समाज गरीबी, रुढ़ि, मर्यादा, सूद, लगान के बोझ, फरेबी लोगों से उसी तरह भरा है। उसने उन्हीं परिस्थितियों को देखा जो बेरहमी से जोंक की तरह समाज के खून चूस रही हैं। उसने आज भी गांव में सूदखोरी, फरेबबाजी, शहर में कर्मच्युत अफसर, धोखेबाद गवाह, वाचाल और झूठे दलील देनेवाले वकील, और गैर जवाबदेह कर्मचारी तथा चोर के सरदार सिपाही, जमादार, दारोगा देखे। उसे कुछ भी फर्क नहीं दिखा। ”
“उसने अशिक्षितों, गंवार और जाहिल मजदूरों को अधिक स्वस्थ और आत्मनिर्भर पाया।”
“उसने देखा- न अधिक ये अपढ़, गंवार लोग दिन भर जी-जान लगाकर काम तो करते हैं। जो कुछ कह दिया जाता है, बतला दिया जाता है, आंख मूंद कर करते रहते हैं, काला अक्षर भैंस बराबर नहीं जानते हुए भी, पढ़े-लिखे लोगों की अपेक्षा वह अपने काम के प्रति अधिक निष्ठावान हैं और न अधिक, वह घूस तो नहीं लेते हैं। इस पर भी उनको मनमुताबिक मजदूरी कहां मिल पाती है।”
“पढ़े-लिखे कर्मचारियों की हालत उन लोगों से लाखगुना बदतर है। हाथ में कलम लेकर बैठे किरानी बाबुओं को अऊंघाते हुए सब लोग नित देखते हैं।”

“उसने समाज में जीवन-मूल्य को बड़ी तेजी से गिरते देखा। जिस समाज में वह जी रहा था उसमें सभी लोग धन कमाने के फेर में लगे रहते। लड़के नौकरी के लिए पढ़ते, जिसका चरम-साध्य पैसा ही होता। डाक्टर, वकील, मुख्तार, दुकानदार, सभी पैसे के लिए सब कुछ करने को तैयार होते। सच्चाई, आदर्श का कहीं नाम नहीं सुना जाता। अब वह पुरानी चीज हो गई। बसियाई चीज को कौन पसंद करे? झूठ-सच का कोई भेद नहीं। सभी झूठ बोलते हैं, सभी मांस खाते हैं, सभी शराब पीते हैं, सभी, सब कुछ करते हैं, लेकिन सब ठीक है। इसलिए कि जीवन-मान कोई चीज नहीं है, उसका अर्थ अब बेमन की चीज रह गया है। सारे लोग दो जीभवाले हो गये, सामने में कुछ, पीछे में कुछ। चापलूसी, झूठ, धोखा उन्नति का कारण। नीति-सिद्धान्त, नियम रोज बनते-बिगड़ते। – समीर को इस नयी दुनिया की खबर न थी। उसका हृदय विद्रोह करता।”
“उसने समाज में और समाज से बाहर- औचित्य का हनन होते देखा। गांव से शहर तक सभी जगह औचित्य का विघटन और उससे सामाजिक जीवन में घोर अव्यवस्था देखी।”
“वह बहुधा रोकर ही समय काटता था। जिस छात्रावास में वह रहता- वहां लड़के उसे बहुत चिढ़ाते और गरीब बाप के उस गरीब बेटे को साहब का संरक्षण कैसे मिलता। वह कुछ नहीं बोलता। अपनी एकान्त कोठरी में समीर दिन रात बैठा रहता, रोता, रोने से जब जी भर जाता तब कुछ पढ़ने बैठता। पढ़ता-लिखता,फिर सो जाता। उसके एकान्त रुदन को कौन सुन सकता था- समीर को इसकी जरुरत भी न थी। वह दुख को अकेले भोगना चाहता था। उसकी एक ही साध थी परीक्षा में अच्छा करना। इसके लिए वह काफी प्रयत्नशील रहता। लेकिन वह हृदय का बड़ा कमजोर था। रह-रहकर उसके हृदय में छिपी दुर्बलता उस पर हावी हो जाती  और वह कलम किताब रखकर बैठ जाता। तब तक परिवार का भूत सवार हो जाता।”
“एमए पास करके क्या करेगा? घर पर जमीन थोड़ी सी ही बची है। और उसमें भी यह सूखा, महंगी। कैसे परिवार का खर्च चलेगा। वह वर्ग में अच्छा था लेकिन उस समय मात्र पढ़नेवाले लड़के ही अच्छा नहीं करते कुछ वैसे भी खूब अच्छा करते जो चलता-पुर्जा होते। समीर को कौन जानता है? और चलता-पुर्जा तो वह सात देह में नहीं होगा। जब उसे परीक्षा में खूब अच्छा करने की निश्चयात्मक धारणा नहीं बन पाती तो वह काफी हतोत्साह हो जाता।”
“वह कुछ लिखना चाहता। यों तात्कालिक प्रकाशनों में कुछ-कुछ वह भेजता ही रहता। लेकिन उसकी रचनायें कहीं नहीं छापी जातीं। कहीं स्थानाभाव, कहीं समयाभाव, कहीं विचार-दोष, कहीं भाषा-दोष, के नाम पर रद्दी की टोकरी में रख दी जातीं। समीर इससे विचलित नहीं होता। क्योंकि साहित्यकारों की एक लंबी कतार उसके सामने खड़ी रहती- जिसमें योग्यता, ख्याति, लब्धि और सम्मान के क्रम से साहित्यकार खड़े रहते, प्रवेश-पत्र के लिए, अर्जी हाथ में लिए। लेकिन सुहृद सम्पादक उदारतापूर्वक सधन्यवाद रचनायें वापस कर देते। ऐसी हालत में समीर की क्या बिसात? ”
“जब लड़के सुनते कि समीर कुछ लिख रहा है, मजलिस बांधकर सब जुटते और तंग करते। समीर थोड़ी-थोड़ी कठिनाई से भी घबरा जाता था। रात के बारह-एक बजे तक छात्रावास के निकट मैदान में खड़ा होकर प्रशान्त व्योमोदधि में तारक-दीपों के बीच ज्योत्सना की नौका पर चांद को सस्मित आनन बैठकर प्रफुल्लमन विहार करते देखता, तो सोचता- क्या ही चांद का भी सुन्दर जीवन है? जागतिक कोलाहल से दूर और शान्त, एकान्त। समीर उस चांद को घंटों निहारा करता। बादल दल-के-दल आते और उसकी हंसी को ढंक लेते , फिर कुछ क्षण बाद- चांद विहंसता हुआ उस तिमिर घनपटल से निकल पड़ता। उसे आश्चर्य होता- इतनी विपत्ति के बादल चांद पर टूटते हैं, लेकिन वह क्यों नहीं उदास होता? ”
“जाने किस दैवीय प्रेरणा से उस दिन समीर ने एक छोटा-सा निबंध लिखा। प्रकाशनार्थ भेज भी दिया। सम्पादक काहे को छापे यों ही, उदास चला आया। ”

“दुष्ट लड़के समीर को देखना तक नहीं चाहते। समीर महाअभागा था। यह बात अब स्पष्ट कैसे न हो? उसके जीवन में एक अप्रिय घटना घटी। ”

“वह शहर बहुत कम जाता। जब जाता, काम से जाता और तुरत लौट आता। नौका पर चढ़ने से वह बहुत डरता था। लेकिन आज वह जाने क्यों चलने को तैयार हो गया। सभी अचरज करते। समीर टाउन जायेगा! सरस्वती प्रतिमा का जल-विसर्जन जो है! समीर जो चाहता तो नहीं जाता, लेकिन संयोग, चला।”

“आज उसने कुछ नयी बातें देखीं। जो लड़के चार महीने से नहीं बोलते थे,वे भी आज पूरे आवभगत से मिलते। उसका मन उदास था। अनागत अज्ञात था। यों अपना भविष्य जानता ही कौन है?”

“लड़कों की एक बड़ी संख्या नाव पर चढ़ी। समीर काहे को चढ़े, नहीं चढ़ेगा। न,न चढ़ जाओ, बड़ा आनन्द होगा। न, मुझे आनन्द-उनन्द की जरुरत नहीं है। नहीं, तुझे चढ़ना होगा। अब इस जबरदस्ती का क्या जवाब है। दो ही लड़कों ने हाछ पकड़कर समीर को नाव में बैठा लिया। नाव चल पड़ी मंझधार में।…समीर का जीवन…मंझधार। वह याद करता;परिवार, भैया, डा. सुसेव्य बाबू, सत्येन्द्र, शम्भू, विजयेन्द्र, रमेश- आदि-आदि। इनमें से कोई उस वक्त वहां नहीं थे। समीर को अब बचने की बहुत कम उम्मीद थी। उसे आभास हो रहा था कि मुकेश और मनोज उसे डूबोने के लिए ही इतने आग्रह से बुला लाये हैं। ”

“नाव डोल रही थी, हवा के साथ लहरों के उत्थान-पतन में नाव का कोई महत्व न था। नाव में जितने थे, उनमें समीर ही सबसे छोटा और डरपोक था। आवर्तों के विधूर्मण और लहरों की हिलोर में- समीर का जीवन डोल रहा था। नाविक घबरा रहा था। ज्यों ही एक लड़का प्रतिमा को लेकर जल में कूदा कि नौका डोल गयी, हवा चली, कोलाहल हुआ, फिर पानी पड़ा! नौका डूब गयी। इधर मुकेश और मनोज का काम बना, ये समीर को डूबाने का उपक्रम करने लगे। मनोज और मुकेश नहीं डूबे। अगलग्गी में कुत्ता नहीं जलता।”

“बाहर से एक गौरवर्ण, बलिष्ठ भुजा वाला जवान पानी में कूदा। दस हाथ में समीर को बांह में समेट कर कंधे पर लादा और तुरत बाहर आया। समीर का बड़ा भाई प्रसाद था। जल से बाहर आया रिक्सा पर लादकर प्रसाद समीर को प्राथमिक चिकित्सा के लिए शहर ले चला। – समीर ने काफी पानी पी लिया था। ”

“स्थानीय सदर हॉस्पिटल में समीर लाया गया। इमरजेंसी पीरियड में डा. एक्स, डा. वाई और डा. जेड थे। लेकिन सभी लापता। प्रसाद ने फोन उठाया, डेरा से पूछा है- हेलो, मिस्टर डा. एक्स हैं। नहीं, प्राइवेट प्रैक्टिस में गये हैं। एक-एक कर सब लोगों के डेरा से पता लगाया! कोई डॉक्टर नहीं।”
“डॉक्टरों की प्राइवेट प्रैक्टिस भी क्या ही बला है? जब जाओ, कोई डॉक्टर डियूटी पर नहीं। कम्पाउन्डर टेबुल पर झेंपता रहेगा। समीर को बगल के सी. बनर्जी के उपचार में लाया गया….”

“सांझ के समय समीर को एक कार्ड मिला, जिसमें उसके लेख की सधन्यवाद स्वीकृति की चर्चा थी। उसे थोड़ा आत्मबल आया। उसे लिखने की बीमारी थी। एक रात उसने एक उपन्यास लिखना ही प्रारंभ किया।”

“एक दिन उसने सुना कि उसका शैशव का साथी आनंद फोर्स में चला गया। सोचा ठीक ही किया। परिवार की जली-कटी बातें सुनने से तो अच्छा हुआ। उसके भीतर द्वन्द्व होने लगा। वह एक ओर अपना परिवार देखता, जिसमें उसके बूढ़े पिताजी निराशा के साथ जीवन के शेष दिन गिन रहे होते, फिर विमाता, दादी, छोटे-छोटे भाई, सबकी आंखें निराशा से डबडबायी होतीं। और सभी समीर की ओर एकटक देखते रहते। परिवार का मोह उसे खींचता था, लेकिन परिस्थिति का आग्रह उसे इस काम के लिए अग्रप्रेषित करता था। वह मन-ही-मन सोचता- पिताजी से नहीं, श्याम भैया से तो पूछ लूं। दोनों सहोदर भाई हैं। मां बच्चे में छोड़कर मर गयी। भैया सीधे-सादे हैं, कहीं बेचैन होंगे। दूसरा मन कहता, आखिर बेचैन क्यों होंगे? क्या जो लोग सेना में भर्ती होते हैं वे मर ही जाते हैं? और फिर मरनेवाले को कौन बचा सकता है? परिवार पर बहुत सारा कर्ज है, उसका निदान तोल ढूंढना ही होगा। इधर नौकरी की गारंटी थोड़े है। और जब तक नौकरी लगेगी-तब तक धूर-धूर की जमीन बिक जायेगी। नहीं, वह किसी से नहीं पूछेगा और फोर्स में अवश्य जायेगा।”

“आज की रात समीर जागा रहा। सिरहाने लालटेन जलती रही। वह क्या बनने का सपना देख रहा था, क्या करने जा रहा है? कभी वह अज्ञेय बनने की सोच रहा था, कभी रेणु। लेकिन वह क्या बनेगा? उसके कोमल भाव परिस्थिति-प्रभंजन से प्रताड़ित हो सुकुमार फूल से क्षत-विक्षत हो जाते। उसके अपने सारे प्रतियोगी याद आते, जिनके लिए वह शूल हो गया था। अब उनके मार्ग का कांटा हटा। समीर का सोया साहित्यकार जगता, लेकिन समीर उसकी अनसुनी कर देता। ”

“सारे विचारों को दबाकर समीर फोर्स में भर्ती होने की दृढ़ धारणा से चल पड़ा। अब की जून में वह घर गया था। सारे सामान लेता गया। अब उसे घर छोड़ने में क्यों कठिनाई हो? ”

“लेकिन वह कहां जायेगा? यहां गांव में न अधिक भरपेट अन्न तो मिलता है। शहर में किसको कौन पहचानता है। वहां तो दिनभर बैठे रहो, कोई पूछता तक नहीं। और इतना समय ही किसे है? वह गांव थोड़े है- जहां दिन-दिन भर किसान और किसान के परिवार वाले सोये रहते हैं। काम के वक्त काम करते हैं, नहीं तो आराम करते हैं।”

“लेकिन शहर में क्या है? एक छोटा-सा लड़का है, वह भी अपने पेट का उपाय बीड़ी बनाकर, कपड़े का रफू करके, दर्जी के यहां कमीज, कुरता में बटन लगाकर ही कर लेता है, सब किसी न किसी काम में लगे रहते हैं। शहर का  दिन बीतते देर नहीं लगती। देहात का सूरज देर से ढलता है। लेकिन शहर का सूरज बड़ी देर से उगता है। शहर में बड़ी-बड़ी छतें हैं, अतः शहर का सूरज लोगों को नहीं जगाता।”
“शहर की गलियों में बड़ी अस्त-व्यस्तता है। सभी जगह सिर-ही-सिर दीख पड़ते हैं। लेकिन इन सिरों की बनावट एक-सी नहीं है। इनके चेहरे भिन्न-भिन्न रंग के हैं। इनके कपड़े के रंग, काट-छांट अलग-अलग हैं। ”

“शहर में अब धोती की चलन उठ रही है। पहनने वाले देहाती हैं। रिक्सावाला उनसे सोझ होकर नहीं बोलता। अधिक पैसा मांगता है। सीधे न जाकर टेढ़ी-मेढ़ी गलियों से ठीक जगह पहुंचाता है। जानता है ये बाबू देहाती हैं। ”

“शहर का आकाश धुएं से भरा है। इनके धुएं में मुर्दे के जलने का चिरांध भी है, फैक्ट्री की गंध भी। अजीब गंध। लेकिन शहर की दुर्गन्ध से लोग नहीं ऊबते।”
“बाहर के होटल में नया समाजवाद है। घर पर सात बार जगह धुलवाकर खाना खाने वाले भी सब लोगों के मुंह की थूक से थुकियायी हुयी प्याली में ओठ सटाते नहीं घिनाते। और होटल के बेयरे की मैली-कुचैली कमीज, पसीने की दुर्गन्ध और हाथ की जूठन और गन्दगी से किसी को ऊबकाई नहीं आती।”

“एक ही प्लेट में थोड़ी देर पहले कोई मिठाई खाता है, कुछ देर बाद मछली और तरी हुई करेजी, मांस। जाने वह गोमांस तो नहीं होता? होता भी है। आज कोई मांस की जगह गोमांस भी खाता है।”

“गांव में छुआछूत अभी भी वैसे ही बरकरार है। इनार की जगत पर चमार चढ़ नहीं सकता। तेली डोल से पानी नहीं भर सकता। लेकिन होटल में बेयरा चमार भी है, दुसाध भी, तेली और सूढ़ी भी। यहां ऐसा कहना शरम की बात है। लोग असभ्य कहेंगे। अगल में पंडित जी खीर खा रहे हैं। ये वैष्णव हैं। लेकिन आज इनका भी मन चला है- होटल में खाने को। बगल में ही मक्का रिटर्न मियां जी मांस से रोजा तोड़ रहे हैं और बीच में अपने रामजी अंडा से फलाहार कर रहे हैं। डोम का लड़का पानी चला रहा है। मजे में पी रहे हैं। ”

“अब शहर का नक्शा ही यही है। धर्म, जाति सिद्धांत जहां के तहां रह गये हैं। समीर के लिए शहर अजनबी है, लेकिन उसकी बीए तक की शिक्षा-दीक्षा शहर में ही हुई है। सब शहर का एक ही हाल है। सब दुकानदार की एक ही मंशा। समीर को शहर में नौकरी लगेगी? और वह कैसे जायेगा?”

“लेकिन, मजबूरन एक दिन वह चल ही पड़ा। वह बालिग होने पर अपने को घर का बोझ महसूस करता। लेकिन ये सब समीर की अपनी बातें थीं। उसके पिताजी और अन्य लोग उसे वह करने को बाध्य नहीं करते, जो वह करने जा रहा था।”

“पिताजी ने तो समीर को कार पर चढ़ कर आते देखने की लालसा पाल रखी थी। बूढ़ी दादी उसे खूब मोटा-ताजा सुन्दर देखना चाहती। भाभी को समीर की कलाई घड़ी बड़ी पसन्द आती। लेकिन इन सबसे कुछ होने को न था- सपने, सपने की जगह रहे।”
“रास्ते में, समीर को शहरी जीवन की व्यस्तता और नौकरी की दिक्कतें मालूम पड़ने लगीं। शहर में उसका परिचित कोई नहीं था तुरत ही तो वह शहर में आने-जाने लगा था। वहां, कहां रहेगा, कैसे इन्टरव्यू देगा? जमाना सोर्स-पैरवी का है, न अधिक कुछ भी तो जान-पहचान होनी ही चाहिये। ”

“पढ़े-लिखे लोगों की एक जमात स्टेशन पर जमा हुई। समीर ने उसमें प्रवेश किया। सभी बीए, कुछ एमए थे। शिक्षक प्रशिक्षण के विद्यालय में प्रवेश के लिए इन्टरव्यू देने जा रहे थे। समीर ने विचार किया। क्या ही अच्छा हो ट्रेनिंग करके मास्टरी ही करें। लेकिन जहां तक सोर्स, पैरवी का सवाल है, समीर यहां भी शून्य ही था। और तत्कालीन शिक्षा विभाग जातीयता का मुख्य केन्द्र।”

“जब इन्टरव्यू में पहुंचा, तो देखा-
इन्टरव्यू में मौखिक रूप से अंतिम प्रश्न था- कौन जात हैं? (What cast do you belong to?) समीर घबराया। ऐं! इसका अर्थ? सामान्य ज्ञान के प्रश्न को ध्यान में रखकर भी सकफकाते हुए उसने स्पष्ट कह दिया- भूमिहार। बाद में समीर से लड़कों ने अंतिम प्रश्न के बारे में पूछा। समीर ने अपनी बात कही तो लड़के समीर को उल्लू बनाने लगे। कहने लगे प्रिंसिपल – अमुक है और आरडीडी- अमुक, तब कहां होगा? समीर अफसोस करने लगा, क्यों नहीं उसने झूठ ही बोल दिया? लेकिन समीर क्या जानता था कि सरस्वती के मंदिर में भी इस प्रकार का जाति-न्याय है? समीर का नाम प्रशिक्षण के लिए नहीं चुना गया।”

“वह क्या करे? उसके पास कुछ रुपये भी थे,इन्हें भी इसी आवागछ में खर्च कर दिये थे। अब उसके पास दो-चार रुपये बच गये थे।…”

“अब वह मास्टरी की धुन में ही भटकने लगा। सोचा न सरकारी किसी कमिटी के स्कूल में ही मास्टरी लग जाय तो अच्छा हो। आज कल तो हाई स्कूल के शिक्षक ही अच्छे हैं। यदि परिश्रमी हैं तो दो सौ रुपये तो केवल ट्यूसन से आते हैं।”

“वह देखता, देहात क्या शहर के हाई स्कूलों में ट्यूसन पढ़ानेवाले शिक्षक वर्ग में बहुत कम पढ़ाते। उनका ख्याल यह रहता कि अधिक लड़के उन्हीं से ट्यूसन पढ़ने आते और उनके रुपये बनते। अक्सर ऐसा होता भी।”

“अच्छे लेकिन गरीब लड़के यह पसंद नहीं करते। लेकिन उससे क्या? ट्यूसन का बाजार गरम रहता। लड़के अपने से पढ़ने के बजाय शिक्षक के नोट लिखाने पर निर्भर रहते और साथ ही साथ सोर्स, पैरवी। कुछ शिक्षक तो परीक्षा-भवन में ट्यूसन पढ़नेवाले लड़के को चोरी कराने तक पहुंच जाते।”

“समीर को यह सब अच्छा नहीं लगता। वह हाई स्कूल में ही रहेगा- लेकिन ढंग से रहेगा और पैसे की वेदी पर आदर्श की बलि नहीं देगा। ”

“गांव से गुजरते हुए- पक्के का अच्छा-खासा मकान, कुछ रंग-बिरंगे पोशाक में लड़के- शोर-गुल- समीर मुड़ा। वह स्कूल हो सकता है…..”

“स्कूल है, लेकिन शिक्षक देर से आते हैं। घंटी बज गयी- कमरे में लड़के हल्ला मचा रहे हैं। दो लड़के लड़ रहे हैं, तीसरा लड़ा रहा है। एक की कमीज दूसरे ने फाड़ दी है, और दूसरे की नाक पहले ने नचोर ली है। सब वर्ग का यही हाल है।”

“स्कूल के आगे बागवानी जैसा कुछ है, लेकिन इसे बागवानी कहने में समीर हिचकता है। क्यारियां बनी हुई हैं। कुछ फूल के पौधे हैं, फूल के पत्ते को तोड़कर समीर ने नाक से सटाया- तो लगा यह हजारी है, यह गेना, कहीं दुपहरिया फुला था, कहीं सुरुजमुखी का पत्ता भर ही शेष था। कुछ फूल विदेशी किस्म के थे। उनमें दुर्गन्ध ही अधिक थी।”

“मैदान में घासें लम्बी-लम्बी थीं। दूभ, छिमरा, फेफनी, आदि। गायें अभी चर कर गयी थीं, घास से सोंधी और हरी महक आ रही थी।..तब तक हेडमास्टर साहब चले आये। समीर ने बातचीत की। यहां तो खुद मास्टरों की भीड़ है। जगह कहां है? जितने हैं उतने का ही वेतन मुश्किल से मिल पाता है। अब तो गांव-गांव में स्कूल खुल रहे हैं, सो लड़के भी घटते जा रहे हैं। सरकारी एड भी कम मिलता है। नहीं, यहां जगह नहीं है- हेडमास्टर ने कहा।”

“अब समीर, समीर नहीं रह गया था। उसने अपना नाम बदलकर समीर कुमार, बीए कर लिया था।”
“समीर कुमार, बीए के चले जाने के बाद हेडमास्टर सांझ को मंत्री से मिले। हेडमास्टर ने बात की। आदमी तो अच्छा लगता है। यदि जात-भाई हो तो रख लिया जाय। नहीं तो जायें। इन दिनों तो सभी जगह जातिवाद है। हम ही कैसे इसे छोड़ दें। और छोड़ ही देंगे तो इससे राजनीति में जो जातिवाद,पार्टीवाद, नेतावाद और भाई-भतीजावाद आदि आ गये हैं, वे थोड़े ही बन्द हो जायेंगे। जैसा सब करें- वैसा करने में कोई पाप नहीं है और यह तो नेम ही है- ‘पहले घर दीया, तब मस्जिद दीया’। पहले अपना पेट तब दुनिया का।”
“सबेरे समीर कुमार, बीए को कहलवा दिया गया कि स्कूल में जगह नहीं है।”
“समीर कुमार, बीए ने अपना बेग उठाया। जैसे-तैसे चलते बने। उसका भगवान नौकरी ही था। नौकरी भगवान की तलाश में दर दर भटकता समीर चला जा रहा था….उसके होठ सूख गये थे। माथे से पसीना टपक रहा था। वह कभी-कभी हांफी भी करता था। जहां-तहां ठहरकर पानी भी पी लेता था। आज उसने कुछ नहीं खाया था। ”

“रास्ते में उसे एक बाजार मिला। देहात का बाजार। बहुत सारे सामान बेचे-खरीदे जा रहे थे। खरीददार-बेचनेवाले में मोल-भाव गजब का था।”
“समीर कुमार बीए ने देखा छंइटे-के-छंइटे- फूंट, कंकड़ी, तरबूजा, खरबूजा, बिक रहा है। दाम दस नये पैसे, पन्द्रह, बीस। इससे अधिक नहीं। इस महंगी में यही क्या कम सस्ता है? लेकिन एक नया पैसा भी कम देने पर कवारी हाथ मरोर कर फूंट छीन लेता है। हाथ में पैसा देख लेता है तब बात करता है। बिक्री भी काफी होती है। गरमी के दिनों में फूंट, ककड़ी की बिक्री सबसे अधिक। सब लोग अनसोहातो (मन न रहने पर भी) कुछ-न-कुछ खरीदते ही हैं। कुछ लड़कों के लिए बाजार का सौगात ले जाते हैं।”
“समीर कुमार बीए ने चार फूंट खरीदे और खाते हुए तरकारियों के भाव मोलाने लगे। करैला, झीगुनी, घिउरा, लउका, कदुआ, पियाज , ये सब हरी तरकारियां हैं। करैला सबसे महंगी है।”
“समीर कुमार बीए ने बाजार में एक बात लक्ष्य किया कि गांव के लोग अपना सामान कीनने (खरीदने)-बेचने बड़ी आसानी से चले आते। घर पर काम से अधिक कोई चीज हुई, बाजार भेज दिया।”
“आम के महीने में तो गांव से बाजार तक आम के टोकरे, छंइटे की कतार लग जाती। रंग-बिरंग के छोटे-बड़े, खट्टे-मीठे आम लोग छानकर बेचते। बिजुक आम काफी संख्या में आता। बिजुक की मिठास और सवाद (स्वाद) के आगे कलमी को कौन पूछे? बिजुक में – मिसरिया, चीनीआही, सेनुरिया, लड्डूआहा, घिउआहा, केरवा, डंकावा, गुलरिया, बतसिया, सबूजा, कठमिया, भदइया, रोहिनिया, आदि भिन्न-भिन्न स्वाद और मिठास से युक्त नाम के आम आते। समीर कुमार इनमें से भी एक-दो चीखने के लिए उठाता। कोई हाथ नहीं रोकता।”

“ये आम बाबू लोग के बगीचे से आते हैं, जहां इस महंगी में भी कुत्ता-कउआ आम नहीं पूछता। कोई हाथ क्यों रोके? गाछी में चले जाएं तो मोटा बांध दें। उठाए न उठे, चलाये न चले। गांव की हालत तो अकाल और महंगी से खराब हो गयी है। लेकिन कुछ मानी में वह शहर से बहुत आगे है। शहर के लेहाज से गांव में बहुत सारे लोग अच्छे हैं। उन्हें इस अर्थ में कि पांच पैसे तो उनके हाथ में नहीं हैं, लेकिन न अधिक, पांच शाम खिलाने-पिलाने में उन्हें कोई हरज नहीं है। गांव के संबंध में समीर को यह धारणा तो बनी ही रहती।”
“बाजार से निकलते ही समीर को एक छरहरा चेहरा आते दीखा। गांधी टोपी, सफेद कुरता, खादी धोती- संभव है, ये नेता हों। समीर कुमार बीए ने कुछ कहना चाहा।”
“मैं कुछ पूछ सकता हूं। नहीं सुनेंगे। ये नेता जो हैं। इन्हें जनता की बात सुनने के लिए वक्त कहां है? सुनेंगे जब वोट का समय आयेगा। अभी नहीं। समीर निराश हो रहा था, नहीं सुनेंगे।”
“हां- कहिये।”
“किस पार्टी में विश्वास रखते हैं? किसी मिनिस्टर से परिचय है? पार्टी में विश्वास और मिनिस्टर से परिचय- दोनों असंभव। हम तो सोशलिस्ट रहें या कम्युनिस्ट- सिद्धांततः।”
“क्यों सर? ऐसा क्यों कह रहे हैं?”
“अरे भाई नहीं जानते हो- यह तो जमाना ही है, सोर्स-पैरवी का। किसी पार्टी के होते तो उसके आदमी को पकड़ते, काम हो जाता। या किसी मिनिस्टर से जान-पहचान होती तो। ऐसे कहां होगा! यहां तो अपने लोगों से जगह भर ली जाती है, तब आवश्यकता निकाली जाती है। आपलोग स्टुडेन्ट हैं, अभी नहीं। कुछ दिन पहले तो रहे ही होंगे। क्या जानें? यह राजनीतिक दांव-पेंच। हम पार्टी के आदमी हैं। इसलिए सब जानते हैं। कांग्रेसी हैं। उधर तो दस-पन्द्रह बरस खूब चली है। देखते नहीं- जिस मंत्री के हाथ में जो विभाग था- पंक्तिबद्ध रूप से अपने आदमियों, संबंधियों,नाती-पोतों की कतार लगा दी। इधर हमारी मंदी है। लेकिन, कोई सरकार हो, नीति थोड़े बदलेगी। जैसा चलन होगा, वैसा लोग करेंगे ही। और महाजनो येन गतः स पंथाः। नेता महोदय कह रहे थे…..। सो जात-बिरादरी या पार्टी-सिद्धांत के नाम पर किसी मंत्री से भेंट कीजिए। कुछ दिन जी-हजूरी कीजिए। तब काम मिलेगा। काम कैसे नहीं मिलेगा? कुछ नया पोस्ट क्रियेट कर दिया जायेगा।…. ”

“श्रीमती जी को खुश करना जानते हैं? न हो तो किसी मंत्री की श्रीमती जी से ही निहोरा-मिनती कीजिए। ऐसा ही जमाना है, युगधर्म है। और नहीं तो यदि शान से रहना चाहते हैं तो घर जाईये। मजे से माटी कोड़िये। अन्न उपजाइये। भैंस पालिये। खूब खाईये। और स्वस्थ रहिये। नौकरी तो हराम की रोटी है। आज-कल की नौकरी में तो सरासरी हरामी है। कोई भी वेतन के मुताबिक काम नहीं करता। इस मरी हुई रोटी पर तो थूक फेंक देना चाहिए..। नेता कहते जा रहे थे। इनके भाषण में समीर के चिंतन के लिए कोई अवकाश न था। समीर कुमार बीए- सुनकर नेताजी झल्लाये। ऐं! अब के बीए को क्या कुछ आता है? एक अपलिकेशन का ड्राफ्ट तैयार करने नहीं आता। नोट, गेस पढ़कर और ग्रेस के द्वारा बीए की डिग्री लेकर लोग नौकरी के लिए सरकार का सर नोचने को तैयार हैं!” समीर कुमार बीए के लिए अपने कान पर अपने वर्ग की शिकायत बर्दास्त से बाहर थी। और अन्त में नेताजी ने यहां तक कह दिया- ‘और बात जाने दीजिए- आज के बीए में से कितने को शुद्ध हिन्दी लिखने नहीं आती है।’ बात में बहुत अधिक सच था। समीर कुमार सुन रहा था, लेकिन बात का बतंगड़ करना नहीं चाहता था।”

“समीर नेता लोगों की बखिया उरेहना नहीं चाहता था, लेकिन मुंह आयी बात रुके कैसे? जाते-जाते समीर ने कहा- हां, आज के बीए को ठीक ही कुछ नहीं आता, लेकिन मैट्रिक पास मंत्री और मिडिल पास एमएलए को क्या आता है, जो वे बैठे कानून गढ़ते हैं? समीर ने दूसरा रास्ता लिया।”

“अब समीर घूमते-घामते एक ऐसे गांव में चला आया जहां उसके जात-बिरादरी के लोग अधिक थे और सब संपन्न। यह गांव नये ढंग का था। शहर के समीप होने से शहरीकरण की बू उसमें आ गयी थी। बिजली के कुछ खम्भे, बल्ब दीख रहे थे। जो मिलते पढ़े-लिखे और आदमी से, आदमी की तरह बातचीत करनेवाले।”

“गांव की व्यवस्था जंच गयी और वहीं के एक हाईस्कूल में समीर कुमार, बीए प्रधानाध्यापक की जगह पर नियुक्त हुए। नियुक्ति के बाद से समीर कुमार, बीए स्कूल में ही रहने लगे। चपरासी खाना बनाता। चावल-दाल गांव से चला आता और तरकारी बगीचे में ही हो जाती, केरा, रामतोरई, आदि-आदि।”

“लड़के समीर कुमार, बीए की पढ़ाई से खूब खुश रहते। देखते-ही-देखते स्कूल का अनुशासन, व्यवस्था-बात सब बदल गया। समीर कुमार, बीए की पढ़ाई की चर्चा उस इलाके में चलने लगी। ट्यूसन पढ़नेवालों की भीड़ लगी रहती, लेकिन रुपये लेकर ट्यूसन पढ़ाने के दुर्गुण को उसने कहीं देखा था, अतः वह वैसा नहीं करता, यों जो लड़के चले आते पढ़ते जाते। समीर कुमार, बीए को इसमें कोई आपत्ति न थी। गांव भर के लड़के आते थे। जिसकी श्रद्धा थी, मन माना कभी दही-चिउरा ले आया, कभी कुछ जलपान। समीर कुमार, बीए इसे भी लेने में संकोच करता। तब लड़कों के गार्जियन चले आते। समीर कुमार, बीए के व्यवहार, आचरण, प्रतिभा, योग्यता से उस इलाके के सभी लोग प्रभावित हो गये।”

“अब वह मात्र शिक्षक ही नहीं था। वह कुछ-कुछ पड़ोसी भी बन चुका था, शादी-जनेऊ, पबनी-तिहार में उसे भोजन के लिए बुलावा आता। वह किसी को न, नहीं कहता। इस कारण उसकी परेशानी काफी बढ़ जाती। वह उस इलाके के लिए कभी-कभी अपनी विचक्षण व्यवहार-बुद्धि से बहुत उपयोगी सिद्ध होता।”

“इसी साल तो समीर कुमार, बीए आये हैं, लेकिन स्कूल का रंग ही बदल गया। लाख सूखा पड़ा है- लेकिन स्कूल में जाकर देखिये- तरकारी, प्याज, आलू, गोभी, भंटा, मुरई, सलगम, से स्कूल का खेत भरा है।”

“इस जमीन में कभी कुछ नहीं हुआ। असल में खेती की उचित व्यवस्था न फसल पैदा करती है? पानी का प्रबंध है। स्कूल के आलू से तो बाजार का भाव गिर गया है।– ऐसा लोग कहते सुने जाते।”

“समीर कुमार बीए ने इस साल स्कूल में अच्छी खेती करवा दी, आलू खूब उपजा। साथ-ही-साथ गोभी, भंटा, मुरई, टमाटर भी। गाड़ी-का-गाड़ी गोभी, भंटा, टमाटर नजदीक के बाजार में स्कूल के लड़के और चपरासी ले जाते। और सस्ती दर में गरीब किसान मजे में खरीद लेते।”
“शिक्षकों को भी जरुरत की तरकारी स्कूल में ही मिल जाती। लोग अपना समझकर ले जाते। कोई दाम भी देते। कोई नहीं भी। इसके लिए कोई बात न होती।”

“उस दिन अकारण ही समीर कुमार, बीए को रघु बाबू से अनबन हो गयी। रघु बाबू स्थानीय शिक्षक थे- मगर डाही। समीर कुमार बीए बाहर से आकर पूरे जम गये थे। अब रघु बाबू को कोई पूछता न था। इसलिए रघु बाबू समीर कुमार, बीए से भीतर-ही-भीतर जलते रहते।”
“इधर स्कूल में कुछ मरम्मती के काम से सीमेंट, चूना, पत्थर आया था। समीर कुमार बीए ने देखा मंत्री महोदय का जन सीमेंट का बोरा उठाकर ले जा रहा है। ऐसा एक बार नहीं, कई बार हो चुका। समीर कुमार बीए ने कहला दिया था- स्कूल का सामान स्कूल का है, मंत्री हों, या कोई। एक खरह कहीं नहीं जायगा।–
लेकिन मानने के बजाय मंत्री भी समीर कुमार, बीए के विरोध में सोचने लगे। समीर कुमार, बीए स्कूल और लड़कों के हित में सोचता और ये स्थानीय शिक्षक समीर कुमार बीए के विरोध में।”

“न अब यहां न रहेगा। इतना जी-जान से स्कूल के लिये करो, तब भी जान के दुश्मनों की कमी नहीं। आखिर समीर कुमार, बीए के साथ जायेगा क्या? कुछ भी तो नहीं।”
उस इलाके में यह बात सभी जानते थे कि अपने परिवार की स्थिति सुधारने के लिए ही वह चला आया है। उसे बहुत कुछ घरेलू चिंता है, लेकिन स्कूल के लिए बह बहुत कुछ करता है।

“अच्छा अफसर हो ओ तब, किरानी हो ओ तब, शिक्षक होओ तब, प्रोफेसर होओ तब, मिनिस्टर होओ तब, देखने-सुनने में खूबसूरत लड़का-लड़की होओ तब- एक ओर जहां ख्याति मिलती है, दूसरी ओर दुश्मन भी हजार हो जाते हैं। घर, और घर से बाहर, सभी जगह यही हाल है। ”
समीर कुमार बीए का मन उखड़ने लगा। अब वह यहां से चला जाना चाहता। परिवार की उसे कोई खबर न थी। अब वह कहां जायगा। लगी नौकरी को लात मारना ठीक नहीं। लेकिन समीर इसे नहीं मानता।
“जब पिताजी मर ही जायेंगे तो वह लाख कमाकर किसके आगे रखेगा? और किसी के आगे काहे करेगा? जिस बूढ़े बाप के सुन्दर सपनों-और-सपनों का वह सतरंगी सितारा था- वह आखिर किस काम का, जब भटकी निशा में दिशा न दिखाये।”


“प्रतिभा विगत सात-आठ दिनों से पढ़ने नहीं आती। दुरे-दरवाजे पर भी उसकी छाया, चुहल और सोख व्यवहार नहीं दीख पड़ते। जाने कहां चली गई? उसे कुछ हो तो नहीं गया?”
समीर कुमार, बीए उसे यों ही कुछ-कुछ पढ़ा दिया करते। समीर कुमार, बीए को देखते ही सहमी-सहमी –सी अस्त-व्यस्त दशा में खड़ी हो जाती। उसकी चुहलपन और चंचलता भरे शब्द मुंह-के-मुंह में रह जाते। उसके मासूम चेहरे पर बनावटी भयमिश्रित सरलता उतर आती। वह माथा नीचा कर लेती। कभी-कभी पपनी ऊपर करके एक टक समीर कुमार, बीए की ओर ताकती, और कुछ देर बाद आंखें नीची कर लेती। कभी ताकती तो ताकती ही रहती।
उसकी बिखरी अलकें सावधान असावधानता की दशा में उसके अद्भुत सौंदर्य का कारण बनतीं। कभी-कभी समीर कुमार बीए को दिखाकर भी वह धड़ाम सी बिछावन में गिर जाती और चउकी से नीचे लटकती अर्द्धनग्नवदना लेटी रहती। बड़ी शोख लड़की।
जब वह सोयी रहती, उसका सारा भोलापन उसके आनन पर उतर आया रहता। उस पर निर्दोषता की आभा उतर आयी होती। दुनियादारी से दूर, सोयी रहती। तकिया किधर रहते, चादर किधर, उसे कोई गम नहीं।
वह अच्छा गाती। लेकिन अकेले में गाती, और कभी-कभी साथियों के बीच भी गा लेती। समीर कुमार, बीए को देखते ही, बिल्कुल स्तब्ध और संयमित दशा में खड़ी हो जाती।
बगल से आकर समीर कुमार, बीए की जेब से अक्सर चाकलेट निकाल लिया करती। जब कभी समीर कुमार चाकलेट नहीं लाते, वह बड़े ही सोख शब्दों में अपना आक्रोश व्यक्त करती। लेकिन उस समय भी उसकी निगाहों में चुहल और मासूमियत झांकती होती। वह सोख लड़की!

समीर कुमार, बीए भीतर के बड़े नरम थे। वह छात्र-छात्राओं के प्रति अक्सर कमजोर हो जाया करते। अपनी इस कमजोरी को वे अपने मित्रों में कबूल करते और किसी को भी इस प्रकार मानने के लिए अपने को स्वतंत्र मानते।
जिस दिन पहले-पहल समीर कुमार, बीए स्कूल में पढ़ाने आये, उसी दिन उनकी दृष्टि प्रतिभा पर पड़ी। वह स्कूल-बरामदे के कोने पर गुम-सुम एक पैर पर खड़ी थी।
वह उसे यों ही पढ़ा दिया करते। छात्रावास में रहते हुए वे दिन भर में तीन-चार बार से कम प्रतिभा के वार्ड में नहीं जाते।
अन्य लड़कियां भी होतीं, सभी को वे कुछ-न-कुछ बता दिया करते, लेकिन प्रतिभा को वे विशेष रूप से पढ़ने के लिए प्रेरित करते। प्रतिभा की कॉपी संशोधित कर देते, प्रश्नोत्तर लिख देते। दो-तीन घंटे तक भी यदि समीर कुमार प्रतिभा को नहीं देख पाते तो बेचैन हो जाते। वह हमेशा उसके अच्छे रिजल्ट की चिन्ता में लगे रहते।
“वह पढ़ती भी बहुत कम। लड़कियों में अनुपाततः सबसे कम। लेकिन थी बड़ी तेज और नटखटपन, चुहल, खेल-कूद से समय निकालकर पढ़ लिया करती। समीर बाबू चाहते, अबकी बार प्रतिभा मेडिकल में अवश्य चली जाय।”
‘और-
समीर कुमार, बीए जब कभी कहीं चले जाते तो प्रतिभा पर जाने क्या-क्या न बीतने लगता। वह आंखों में प्रतीक्षा की प्यास लिए छात्रावास के गेट की ओर बार-बार जाती, कभी उनके कमरे की ओर देखती, और मुरझायी-सी लौट आती।
समीर कुमार, बीए के रहने पर उनके कमरे की ओर जाते कभी किसी ने नहीं देखा। वह खुद नहीं जाती। जमाना देखती। लोग तुरत गलत अर्थ लगा लेंगे- ‘प्रतिभा इन दिनों समीर बाबू पर फिदा हो गयी है, फिर बदनामी और अंट-संट।’
समीर बाबू को देखने की चाह यह किससे व्यक्त करे? सात-आठ दिनों से बोखार (बुखार) एक-सा है। कम होने का नाम नहीं लेता। वह बिछावन में सटती चली जा रही है। उसकी कलाइयों से चूड़ियां खिसक रही हैं और उंगलियां सूख गयी हैं।
छात्रावास में उसे कभी कुछ होता तो समीर बाबू चले आते। अपने हाथ से उसका सिर, कपाल मलते। कभी-कभी तलवा तक सहला दिया करते। लड़की जानकर और यह जानकर कि वह उनके मित्र मंशी बाबू की है।
रात में जब सारा छात्रावास नींद में सपने देखता रहता, समीर कुमार एक बार चक्कर लगाते प्रतिभा की बिछावन की बगल में दबे पांव पहुंच जाते। उस समय प्रतिभा – क्षीण मूल लता की तरह बिछावन पर पड़ी रहती और समीर कुमार के कर संस्पर्श  से अलंबुषा-सी सिमट जाती। सोयी-सोयी ऊं-ऊं, करती पलकें उठाती, कुंतल-लट मुख पर से हटाती हुई समीर कुमार की तरफ ताक कर, तकिया से माथा सटाकर सो जाती।
समीर कुमार उसे पढ़ने के लिए रात में जगा दिया करते। न, न, कहती हुई, आंखे मिजती, पढ़ने लगती और पढ़ती भी।
समीर कुमार ने उसमें चाकलेट खाने की आदत डाल दी थी….अब वह कुछ-कुछ ढीठ की तरह उनसे चाकलेट मांगती और जोर-जोर से कहती भी- ‘मास्टर साहेब चाकलेट जरूर लेते आइयेगा, नहीं तो इस मांहे नहीं जाने दूंगी।’
समीर बाबू मुस्कुराते हुए चले जाते।

अब समीर कुमार, बीए जगह छोड़ने की स्थिति को पहुंच चुके थे। मंत्री-संयुक्त सारे गांववालों ने एक-एक कर उनका विरोध करना शुरु कर दिया। और अन्ततः वे जगह छोड़ने के लिए कृत्संकल्प हो गये। आज रात समीर कुमार, बीए ने छात्रावास में ही सत्यदेवपूजन किया। लड़कों को पूरी मिठाइयां खिलायी। प्रतिभा भी पूजा देखने आयी थी। उसे ही अपने से प्रसादी दी।
गांव वालों, सहयोगियों और मंत्री महोदय को भी आमंत्रण भेजा था, लेकिन कोई नहीं आये।
समीर कुमार ने आज रात खाना नहीं खाया। थोड़ी-सी प्रसादी खायी और दूध पीया। रात के ग्यारह बज रहे थे। उसके स्थानीय मित्रों में रत्नेश और शम्भू सर्वाधिक आत्मीय थे। पूजा देखने आये थे। समीर कुमार ने उन्हें रख लिया। रत्नेश को अपना सारा सामान सुरक्षित रखने के लिए सौंप दिया। यहां तक कि अपनी दो पुस्तकों की पाण्डुलिपियां  तक दे दी। जाने अब उसे किस-किस घाट का पानी पीना पड़ेगा?
समीर कुमार, बीए बिछावन पर लेटे हुए हैं। अगल-बगल दो चउकियों पर शम्भू और रत्नेश हैं। ये भी जगे ही हैं। बोलता कोई नहीं। धीरे-धीरे समीर का चुप टूटकर बहने लगता है।
“मंत्री महोदय के लिए कितनी बार कोर्ट में झूठा गवाही दे आया था। बड़े भाई का नाम स्कूल की ओनरशिप से हटवाकर इनका नाम करवा दिया था और मंत्री महोदय की व्यक्तिगत सिफारिश पर कितने गये-गुजरे लड़के को जरूरत से ज्यादा मार्क दे दिया। कितने अच्छे लड़कों के लब्धांक घटाकर उसकी श्रेणी खा गया था और कितने को फेल तक करा दिया था।
कितने जाली स्कूल लिभिंग सर्टिफिकेट काट दिये थे और निःशुल्कता का प्रमाण-पत्र कितने लड़कों को झूठे ही दे दिया था। मंत्री महोदय के जी-में-जी, हां-में-हां मिलाता रहा। लेकिन सब करके भी कुछ नहीं किया। इन्हीं सब का प्रतिकार है कि आज यह स्थिति है। ”
“स्कूल के लिए क्या नहीं किया?  पड़ोस के मोखतार महतो से स्कूल की जमीन के लिए ही झगड़ा हो गया। वह दस सवांग है, सभी लठ लेकर डेरा पर मारने चले आये, कितने दिनों तक तो राह चलना बन्द कर दिया था। उसकी चलती के आगे मंत्रीजी क्या हैं? कुछ भी तो नहीं। अगर उसका साथ दिया होता तो आज यह दशा नहीं होती। वह है तो छोट जात ही, लेकिन बड़ जात वालों से अधिक इज्जत-लेहाज रखना जानता है। और एक बात और है। ये लोग जिसकी मदद करते हैं, एकतरफा, चाहे गलत या ठीक। लेकिन मंत्रीजी जात-बिरादरी का जामा पहनकर अपना व्यक्तिगत काम साधते हैं।”
सुना, शायद उनके भगिना ने इस साल बीए बीएड किया है। अपने रिश्तेदार को रखें कि मुझको?
मंत्रीजी की लड़की की शादी मैं ने ही करायी। इनके बात-व्यवहार से न तो लड़कावाला दरवाजे पर बैठने देता और न अपना लड़का ही बिआहता। उसके अपने मुंह से सिमरियावाला अगुआ पन्द्रह हजार नगद और अलावे जिनिस दे रहा था। लड़की दिखा देने की गारंटी दे रहा था। और यह भी कह रहा था…..
लड़की की मां ने दो बरस का पुराना पानफूल चावल दस मन जमा कर रखा है। और चीजों के अलावा वह पूरे वर्ष भर खाने के लिए अपनी बबुनी को चावल-दाल देंगी। लड़का का मामा बड़ा दिलेर है- एक फेभरलुभा कलाई घड़ी, एक फस्टक्लास ट्रांजिस्टर, दो अंगूठी, एक साइकिल, अलग से दे रहा था। और…
परिवार की ओर से अलग सारे सामान जोड़े जा रहे थे। यह भी कह रहा था- लड़की दो भाई के बाद की ‘तेतर’ है। तेतर बहिन बड़ी भाग्यवती होती है। अतः मतारी-बाप बड़ा मानते हैं, आदि-आदि।
इतने के बाद मैंने अपने परिचित संजय कुमार को मिलाया। और संजय कुमार ने उतना अच्छा कुटुम छोड़कर इनकी लड़की से अपने लड़के की शादी की। लेन-देन में तो मंत्री जी कच्चे हैं, यह सारा इलाका जानता है। एक ही लड़की की शादी करनी पड़ी। लेकिन सब की नाक कटवा दी।
मेरे लिए उन्होंने जो किया सो राम जाने। समीर कुमार कह रहे थे। आज स्थिति यह है कि मात्र मंत्रीजी के विरोध के चलते सारा गांव समीर कुमार, बीए जैसे शिक्षक के खिलाफ में बोल रहा है”।
रत्नेश और शम्भू से समीर कुमार, बीए को हार्दिक समर्थन था। लेकिन आज तो स्थिति यह है कि कोई भी व्यक्ति नाजायज का भी, खुलकर विरोध नहीं कर सकता। रत्नेश सोचता है- आखिर समीर कुमार, बीए तो चलती गाड़ी हैं आज यहां न हुआ वहां, न, वहां। लेकिन हमें तो मंत्री जी के साथ ही रहना है। उनसे विरोध करके हम उनका क्या बिगाड़ लेंगे। बिगाड़ेंगे अपना। उनको तो बाहर-भीतर मालोमाल है। जिस पर ढर गये,- ढर गये।
रत्नेश, समीर कुमार के गले में बांह डालकर भुकुर-भुकुर के घंटों रो सकता है। लेकिन उसके प्रति किये जाते हुए अत्याचार के खिलाफ आवाज नहीं उठा सकता है। ऐसा रत्नेश अकेले नहीं है। आज सारे-के-सारे लोग कुछ इसी किस्म के हो गये हैं। ‘चलो व्यर्थ का झगड़ा कौन मोल ले? दूसरे के लिए इतना काहे को जान दे?’
समीर कुमार, बीए की नजर सामने की टेबुल घड़ी पर पड़ी। अब चार बज चुके थे। बेग हाथ में लिया और छाता। रत्नेश को जगाया, चपरासी को, शम्भू को। शम्भू के हाथ में कागज के डिब्बे के जैसा कुछ देते हुए उस पर लाल अक्षरों में लिखे नाम की ओर संकेत भर किया और चलते बने।
सभी की वाणी मूक थी। शम्भू की आंखें छलछला गयी थीं, और रत्नेश भुकुर-भुकुर रो रहा था………।
शम्भू ने प्रातः प्रतिभा को विमन भाव से डिब्बा दिया। समीर कुमार, बीए के अक्षरों में अंकित नाम को देखकर बड़ी प्रसन्नता के साथ जल्दी से डिब्बा खोला- तो उसमें चाकलेट थे। दौड़ती हुई समीर बाबू के कमरे में आ रही थी यह जनाने के लिए कि आज वह उनसे बड़ी प्रसन्न है, उनके चाकलेट से भी। लेकिन कमरे तक आते-आते उसके पैर रुक गये। कमरे की किवाड़ को गैरजवाबदेह-सी खुली देखकर स्तब्ध रह गयी………।
चाकलेट हाथ में लिये हुए प्रतिभा वहीं बड़ी देर तक रोती रही। घंटों कमरे के इर्द-गिर्द, छात्रावास के अहाते में रोती हुई भटकती फिरती….उसके आंसू अब भी वैसे ही हैं।
समीर कुमार गांव से निकले तो एक बहुत बड़ा सरेह मिला। सावन का सूरज सिर पर आ रहा था; जिसकी तीखी किरणों से देह चुनचुना रही थी, और एक डेंग भर भी चलने को मन नहीं करता था।
जेठ-आसाढ़ में उधर कुछ-कुछ बरसा हुई थी; जिसके कारण कहीं-कहीं हरीअरी नजर आ रही थी, लेकिन नाम मात्र की। सरेह भर में एक-दो पेड़ झरकट, पीपर और महुए के थे। सरेह भर की गायें वहीं आतीं। चरवाहे वहीं घाम गंवाते थे।
हरवाहे हर खोलकर बैल की जोड़ी को हांकते चले जा रहे हैं, लेकिन कुछ गिरहत अभी भी काम कर रहे हैं। कुछ माथे पर घइला, गगरा, तमहा और लोटा, बाल्टी में पानी भरकर खेत में जन को पिलाने के लिए ले आ रहे हैं। कुछ जनों के साथ कोदार चला रहे हैं। उन्हीं में से कुछ मोथा, दूभ, साई, डेंवरा, मुरका आदि, फसल को न उपजने देनेवाली घास को खेत से बीनकर डरेर पर रख रहे हैं। उधर गड़ी पर गोबर, राख की खाद है, कुछ लोग उसको छोटी दउरी, छंइटी से खेत में बराबर छितरा रहे हैं।
सरेह भर के हर एक-एक कर देखा देखी खुल रहे हैं। यदि सरेह में एक हरवाह सबेरी हर खोल दे तो क्या मजाल दूसरा आध घंटे भी हर जोते। नहीं जोतेगा। और यह भी कहेगा- ‘फलाने बाबू तो भात पनपिआयी देते हैं और भरपोख फलाने- मकई का सतुआ, और फलाने मड़ुआ, गेहूं, जौ की रोटी’।
इधर की बरसा से गिरहस्तों को कुछ राहत मिली है, बिड़ार बीज गिराने के लिए खेत तैयार कर कुछ लोगों ने बीया भी गिरा दिया है। जहां-तहां भदई, मडुआ, की रोपनी हुई है, और मकई की बोआई हो गई है।
आसाढ़-सावन का घाम तेज होता है। समीर कुमार देखते-देखते आकर एक पीपर के पेड़ के नीचे बैठ जाते हैं। वहां कुछ बूढ़े गिरहत आते हैं, कुछ जन। हाथ में पैना, माथे पर चार हाथ कपड़े का मुरेठा और जांघ तक समेटी हुई धोती। करिया देह धूरा और पसेना से भरा हुआ।
‘अपने समन काहे के यतना मेहनत कयल जात बा। घरे जायल न जाव। बूढ़ के शरीर भेल। कामो करे के समय नु ह..’- समीर कुमार ने कहा।
“न जानत बाड़..ये बाबू हमनी के जनमवे येही खातिर भेल बा..। हमनी न जानी जिनगी में आराम कथी कहाला। हमनी के कमवे इहे ह..। हमनीं त माटी कोड़ी ला, ये करे चनन करीला आ यहा से घर भर के पेट भरे, इहे चाही ला। इ हमनी के पुश्तानी पेशा नु ह..।”
“ये बाबू तू पढ़ुआ बुझात बाड़। भला तू ही कह, हमनी खेतिया न करब त तोहनीय सभन जे नयका लइका-फइका बाड़, कथी खयब..। अबके लइका स..त खेती करे में सिकाइत बूझेला देह में धूरा लगावे के न चाहे..। लेकिन, हमनी के त बाबा-दादा के ‘मगरुसी’ बा इ जमीन। साग-सतुआ खा के जमीन जोगवले चल अइली, आ जब ले जिनगी बा, करइत बाड़ी। मर जायब लइका साहेब नु बाड़न, जे बुझतइन करिहन। अब हम देखे न नु आइब। अपना पहरा करब जाग आनक पहरा लागे आग। ”
“आ दोसर ये बाबू- हमनी सरकार न नु हईं- जनता हईं, गांव के लोग हमनी के बात के सुनि। हमनी बूढ़ भइली, केतना जवाना देखली। अंगरेजन के राज देखली, लेकिन अइसन राज ना। ओह राज में ईमनदारी से भर पेट अन कमाये  कौनो हरज न रहे। लेकिन आज त मर के अन उपजाई हमनी; आ नफा बेपारी सभ। सरकारों खीस बघारे हमनीये पर। सरकार गांव के न देखे, कागज पर नक्शा देखले। भला नकशा देखला से गांव के गरीबन के थाह लागल ह..। इहां त सब कुछो अलगे-अलगे कागज पर होखे ला। कवनो सरकारी आदमी के ना देखि जे उ खेत में कुछो देर गिरहत के साथ नया खेती करे के तौर तरीका बतावे वा ठहरे। त…”
“हमनिओ अपन चाल न छोड़िला..। आखिर इ त सब केहु के माने के पड़ी कि सरकार के हाथ गोड़ हमनीयें बाड़ी देखइत नु बाड़ी हमनी के खेतवा में ये साल न उपजल ह त सरकार कहां से येतना लोग के पेट भर ले। ”
“सरकार के त चांही हमनी बूढ़ गिरहस्त के जमा करे के, विचार लेवे के आ खेत में आवे के।”
“ये बाबू, हमनी के खरचो बेहेल बा। गांव-गांव ह, शहर न नु ह। तीन गोड़ा के खरचा। इहां त एगो लड़की के बिआह में हजार-हजार भंज जा ला। और भाई के भोज-भात में सैंकड़न के खरच होखे ला।”
“येतना महंगी बा, लेकिन एको काम बंद बा। बिआह, सराध, पबनी-तिहार, जग-जुप, लेन-देन।”
“से हमनी के जनम ये ही में, ये ही ला भेल बा। हम त इहो ना जानी किकवन सहर केने बा। जरूरते का। अपन कमाइला, खाइला।”
“लेकिन येतना महंगी सूखा भेल ह त का। अभी हमनी के घर में दू बरस के पुरान चाउर दस मन मिलबे करी। पांच मन पुरान रहरी, मसूरी, सरसो, राखल होई। जाने कब कइसन समय आबे? हमनी शहरी न नु हईं, जे ऊपर के कपड़ा-लाता में बेसी खरच करी। हमनी संचे के हाल जानी ला, जरुरत भर खरच करी ला, भरसक ओहु में कम हो सके त ठीक, लेकिन एक पइसा बेजरुरत न।”
“हमनी कींहा पईसा बड़ा मेहनत से आबे ला। लेकिन हरज हमनी के न ह, पइसे वाला के हमनी कीहा न बेपारी दूरा के माटी कोरइत रहेला।”
“आखिर भारत के लक्ष्मी त गांव में आपन बास येही से नु बनवलक। आज त गांव कूड़ा घर आ कीड़ा घर मानल जात बा। माने दीं।”
“ये साल त आसाढ़ बरसल बा? खेती के हाल अच्छा रही? – समीर ने पूछा- हां ये बाबू ये ही साल तीन चार बरस के बाद रोहिन बरसल ह। आ, जब रोहिन बरस जाय त खेती के भाग आच्छा समझल जा ला। आ हमनी के त आउरो। ठीक से एके गो फसिल होखेला, धान। धाने के बहुत रंग बा, बहुत नांव बा- ये बबुआ तू कवना इलाका के हउअ?”
“हमरा इहां त मेहिया-से-मेहिया, मोट से मोट, नहव में समावे लायक धान के चाउर होखे ला। पान फूल, बासमती, नन्हकजली,
इ सब धानवा हमनीये न खाइला। अपना खायला अलगे छांट ली ला, तब जन-बनिहार ला, तब बेचें-खोंचे ला। मोटका धान बन दिआला, मेहिआका बेचेला राखल जाला आउर बीचला किसिम के अपना खायला रख लिहाला। मरुआ, कोदो होखेला। लेकिन खायला ओकरा के पूछो? ”
“समीर कुमार सुन रहा था। बूढ़े के कथन में आत्मतोष की सुगंध थी। सूर्य ढल चुका था, रास्ता चलने का यही समय है, सोचकर समीर कमार ने चलने की इच्छा प्रकट की। बूढ़े ने कहा- “तू त अपन ठेकान न बतइल ये बबुआ? काहां से अवइत बार, काहां जाइत बार। सुभाव के त बाड़ा आच्छा लागत बार।”
“अपने जान के का कईल जाई। हम राही हईं। भटकल राह के। बैठेकान हईं।” कहकर समीर चलता बना।
समीर कुमार भटकते-भटकते शांतिनगर के एक होटल में पहुंचा। मालिक से कह-सुनकर वहीं बेअरा का काम करने लगा। बेअरा का काम करते हुए दस महीने बीत गये।
इन दस महीने में उसके पास कुछ पैसे जमा हो गये। अब वह अधिक आमदनी की इच्छा से दुकान खोलने का विचार करने लगा। शहर के चौराहे पर पान की एक छोटी-सी दुकान की। पान की दुकानदारी में उसकी स्थिति अच्छी रही। वह पान खुदरा भी बेचता, थोक भी। अचानक अति वृष्टि के कारण पान का आना बन्द हो गया। समीर कुमार ने कुछ पान का स्टॉक कर रखा था । इससे भी उसे अच्छी आमदनी हुई।
समीर कुमार बेयरा से पनहेरी हो गया। पान खूब बिकता। शहर भर से लोग आते। शाम को उसकी दुकान पर एक खासी भीड़ देखी जाती। थोड़े ही दिनों में वह नगर का सबसे अच्छा पानवाला हो गया। उसकी पान बिक्री से नगर की पुरानी दुकानें मन्द पड़ने लगीं।
दुकान से कुछ नीचा उतरकर सड़क की बगल में ही थोड़ी-सी जमीन थी यों ही पड़ी। समीर कुमार ने उसकी बन्दोबस्ती करायी और उसमें छोटा-सा खूब खूबसूरत मकान बनवाया। बिजली, पंखे, बाथरूम, डाइनिंग रूम – आदि की पूरी व्यवस्था। दो-तीन सोफा सेट”।
दुकान चलाने के लिए एक लड़का ठीक कर लिया। वह दिनभर बैठे पान बेचता। समीर कुमार बगल में बैठे सिगरेट पीते।  हाहा-हूहू करते। परिचितों की कमी अब नहीं रह गयी थी।
चारों ओर महंगी-महंगी सुन पड़ती थी और व्यापारी वर्ग चांदी के जूते मार रहा था। ‘इस समय इसी वर्ग की तो चलती है’। ऐसे सभी कहते थे। आमदनी बढ़ाने की प्रबल इच्छा से उत्प्रेरित होकर समीर कुमार ने अपनी दुकान बढ़ाने की योजना बनायी और कुछ किराना तथा चावल-दाल की भी व्यवस्था शुरु की। अब दुकानदारी ही उनका मुख्य पेशा बन गई थी। दो-चार आदमी थे। वे ही दुकान का सौदा बेचते। समीर कुमार को आर्थिक दिक्कतों का कटु अनुभव हुआ था- ‘यह हुआ था कि अर्थ के बल पर ही मनुष्य सत्य और स्वत्व दोनों की रक्षा कर सकता है।’ अपने सारे जीवन में वह अर्थ के लिए दर-दर की ठोकरें खा चुका था; और आर्थिक दैन्य के कारण ही वह अपने पिता के सपने पूरे न कर सके थे, जिनकी तब भी अपेक्षा थी।–
इतनी सारी समस्याओं के बीच आमदनी बढ़ाने की उद्याम इच्छा को वह कैसे दबाता। और व्यापार धर्म भी यही है दो का चार, चार का आठ, फिर आठ का सोलह। जितना आता जाय उतना लगाते जाओ। समीर कुमार का व्यापार अब पान की थोक बिक्री तक ही सीमित नहीं रहा वह शांति नगर का नामी सेठ हो गया।
उसे घर की याद आती थी, लेकिन वह इतना धन पूरा कर लेना चाहता था कि अपने परिवार का कायाकल्प कर सके।
दिन-दिन अतीत होते गये।
अब समीर कुमार को शहरी मित्रों की कमी नहीं रही। डेरे पर रोज ही दो चार मित्र आते, हा-हा, हू-हू के साथ चाय-काफी भी चलती। समीर कुमार से मित्रों की लेन-देन भी चलती। चलता ही है, एक जगह रहने पर हजार बजार का लेन-देन। देना-पावना। समीर को इसमें क्यों हिचकिचाहट हो।
शहर के मित्रों से, शायद, जीवन में समीर कुमार पहले-पहल मिला था। और इतने सारे रुपये, यश के साथ। शहरी दोस्तों की एक अच्छी आदत होती है अपने मित्रों की जेब ऐंठने की। समीर कुमार की जेब तो वे मित्र नहीं ऐंठ पाते, लेकिन समीर कुमार को शहर का परिचय कराने में उनसे मुक्त कंठ से सौ-दो-सौ रुपये मांग लिया करते।
समीर कुमार यह जानकर कि मित्र हैं, कभी न कभी देंगे ही, जायेंगे कहां? कुछ नहीं बोलता, दे देता।
एक दिन ऐसा ही हुआ। समीर कुमार पर उसके बड़े व्यापारी का , जिससे माल का उधार आनयन होता था, सख्त तगादा आया चार हजार रुपये का। समीर कुमार सन्न रह गया। अपने कर्जखोर मित्रों को बुलाया। लेकिन सभी ने एक-एक कर रुपये देने से तो इन्कार किया ही, साफ-साफ यहां तक कह डाला कि “तेरे रुपये मैंने कब लिये, कहां लिये और तू तो नये सेठ बनने चले हो, न घर का पता, न नाम का। यहां हम तेरे जैसे को खरीदते चलते हैं।” आदि-आदि कहासुनी तक हो गयी। आज समीर कुमार को काफी तकलीफ हुई। वह तरह-तरह की बातें सोचने लगा।
सोचने लगा कि शहर के मित्र कितने धोखेबाज होते हैं। ये कामभर का रिश्ता रखते हैं। बाद में जानी दुश्मन हो जाते हैं। शहर में सब के चेहरे साफ-साफ नजर आते हैं, लेकिन मन कितना काला। गांव-तो-गांव है। यहां कोई चोरी करता है तो कोम्हड़ा की, लउका की, एक मुट्ठी मूज और रस्सी की। न अधिक दो सेर धान की। लेकिन चोरी करते समय उसके ऊपर पाप-बोध सवार रहता है और गांव भर में हल्ला होता है, अमुक ने अमुक का लउका तोड़ लिया। तब वह बहुत बड़ी बात मानी जाती है। झूठ बोलना घोर अपराध है। वहां के लोग अफसर को खुश करना चाहें तो यह देखेंगे कि कौन दही-चिउरा से खुश होता है, कौन उस पर लड्डू और छेना से। कौन दो मन गेहूं और कौन चार सौ रुपये से इससे अधिक वे नहीं जानते। लेकिन शहर क्या है- सौ-सौ रुपये क्या हजार-हजार के लिए झूठ बोलते शर्म नहीं आती और सत्य को पचाने के लिए कोर्ट तक बहू-बेटियां अफसरों को भेंट की जाती हैं। यह शहर है जहां चोरी कोई चीज नहीं है। बेईमानी कला है, चापलूसी मंत्र और हर बात में मर्डर की धमकी यंत्र। शहर के शत्रु जान लेते हैं। देहात के दुश्मन कुछ बोल भूक कर रह जाते हैं।
आह गांव कितना स्वच्छ है। कहां सुन्दर वातावरण और स्वस्थ विचार चिंतन लोगों के बीच का जीवन कहां का यह नारकीय जीवन? वे सच्चे, अनुभवी और साफ दिल लोग। वह भाईचारा!  यह शहर है, जहां सबके हृदय में काला नाग बैठा है, फूं-फूं कर रहा है। मौका पाया कि डंस लिया।
मैं बेकार ही गांव छोड़कर, नौकरी के लिये शहर चला आया। यहां तो नौकरी नहीं है। चोरी है, दूसरे को ठगना है। कमाता है कोई और दूसरे की कमाई पर मजा उड़ाता है कोई। न, वह अब यहां न रहेगा। यह शहर कृतघ्न लोगों, फरेबी जनों के रहने लायक है। मेरे जैसे लोग यहां न रहेंगे। यहां इज्जत कोई चीज नहीं दीख पड़ती। इज्जत-आबरू का प्रतिमान मात्र पैसा है। कितने ही दुश्चरित्र क्यों न हों, यदि साफ कपड़े हैं, कार है, कुछ अंग्रेजी के शब्द जानते हैं, डांट-डपट का ढंग मालूम है, तो निश्चित बड़े आदमी हैं और बाबू हैं।
इस शहर की ईंट-ईंट शोषितों के रक्त से साने हुए गिलावे पर जोड़ी गयी है। इन महलों की पुताई में जिन रंगों का आब है, वह उन शोषितों के रक्त का है, भुक्खड़ों अर्द्धनग्न लोगों और मजदूरों का हक छीनकर आज शहर बन रहा है। न, इस शहर से वह गांव लाख गुना अच्छा है, जहां ईमानदारी से काम करने पर भर पेट भोजन मिल सकता है और वह ही क्यों- गिरहस्त खुश होता है तो न चाहने पर भी जलपान अवश्य दे देता है। दिन भर की मजदूरी अलग। वहां मशीन के साथ मशीन तो नहीं बनना पड़ता। और सच्ची बात तो यह है कि वहां लोग तो मिलते हैं। सब ओर से नोचने, और छीना-झपटी करनेवाले तथा बात की बात में जान तक लेने के उपक्रम करनेवाले लोग तो नहीं हैं। अधिक हुआ दो शाम बोलचाल बन्द कर देंगे। फिर कोई जरुरत हुई! वही भाईचारा। न वह अब शहर में न रहेगा।
अपने शहरी मित्रों के दुर्व्यवहार से समीर कुमार के विचारों में परिवर्तन आया और वह कुछ दूसरा ही सोचने लगा।–
शान्त शून्य सायं, निरभ्र व्योग, खगरव निश्शेष, तारकों की झिलमिलाहट के बीच अन्धकार के बढ़ते प्रभाव में समीर कुमार की चिन्त्य मुद्रा। आज भैया से मिले कितने वर्ष हो गये। परिवार, घर, किसी का कुछ समाचार न मिला। इसी चिंतन के साथ कमरे में प्रवेश किया कि समाचार पत्र में ऊपर ही छपा पाया-
“समीर कुमार- पिता का नाम प्रशान्त कुमार, गांव जलकुन्डा, मेदिनीपुर, जहां भी हों, शीघ्र पत्राचार करें। परिवार के सभी लोग काफी चिंतित हैं।” समीर कुमार को धक् –सा लगा। अब उसे अपने भैया, पिताजी का स्नेह याद आया। डायरी उलटी तो उसमें अपने अतीत दिनों को चित्रवत अंकित देखा। और काफी अफसोस किया कि इतने दिनों तक उन लोगों को अपना परिचय तक नहीं दिया? तुरत पोस्ट-कार्ड उठाया और पत्र लिखा-
डाकिया से पत्र पाते ही – श्याम के नेत्र सजल हो गये। गला भर आया। हाथ में पत्र, नेत्र में जल और अवाक दशा में देख लड़के फिर परिवार की बूढ़ी दादी, कुछ अच्छे लोग जमा हो गये। एक-दो पढ़े-लिखे लोगों ने पत्र पढ़े भी। सब समीर का अक्षर देखते, नाम देखते। श्याम से पूछते। श्याम ने लोगों को बताया कि समीर अभी शांतिनगर में है।
समीर के पिता के कानों में जब बात पड़ी तो उनका हाथ माथे पर चला गया।
इधर तीन-चार साल से श्याम के स्वभाव और जीवन में बड़ा संतुलन आ गया था। वह विचारशील और कर्मठ था। परिवार की बिगड़ी दशा उसे सदैव चिंतित किये रहती। उसे थोड़ा वेतन मिलता और परिवार का बहुत-सारा खर्च अपना रहन-सहन। वह नौकरी करता। बाहर रहता, हंसता रहता, कार्यरत रहता। बड़ी ही युक्ति से जीवन जीने की कला उसने सीखी थी! निकट के शहर में ही एलआईसी का आफिस था। एक दिन उसके मन में क्या आया, जाकर एजेंट हो गया। उसे अब एक और सहारा मिला। उसने अपने डेवलपमेंट अफसर को काफी तत्परता और निष्ठा दिखायी। फलतः इस क्षेत्र में बढ़ने लगा। इसके अलावे भी वह किसी न किसी काम की धुन में लगा ही रहता। उसकी प्रबल इच्छा रहती कि वह अपने परिवार को खुशहाल देखे। बाहर से सोच-समझकर आता, अबकी बार यह कर लूंगा। शेष बाद में आने पर होगा। पर घर आते-आते उसके सारे कोमल भावों पर तुषारापात हो जाता। वह ज्यों ही आता कि आंगन से चन-चन, झन-झन, फट-फट, झट-झट करती हुई उसकी विमाता निकलती। घर की समस्या, लड़के की, बहू की, गांव की, नून, तेल, लकड़ी की। कुछ जली-कटी, गरम-नरम भी। श्याम, मुंह में पानी भी न रखने पाता कि ये सब बातें हो जातीं। वह कुछ बोलता और पारिवारिक राजनीति के गुरुओं में समझौता कराने की चेष्टा करने लगता।
वह बाहर रहता था। परिवार में उसकी पत्नी थी, एक पुत्री अनामिका बाकी सब विमाता की ही जमात थी। फिर भी देखता सब उसी पर झिल्ली झाड़ते- पिताजी, विमाता जो भी कमाता, पैसा-पैसा का हिसाब करके सब दे ही देता है, फिर भी लोगों की भली-बुरी। उसे हार्दिक क्षोभ होता। वह देखता- परिवार में खेती है ही। धान, भदेआ, रब्बी, न अधिक, अपने खर्च के लायक तो हो ही जाता है। फिर भी तबाही-तबाही। महंगी की बढ़ती से उसने परिवार में सभी को हिदायत कर रखी थी कि कोई मुट्ठी भर भी अनाज ऐसे-वैसे खुदरा नहीं बेचेगा। खुदरा बेचने से घर के अन्न की सिरी-सवाई नहीं बुझाती। और फिर अपना अनाज घटने पर वही अनाज, उससे भी घटिया किस्म का-रुपये से खरीदना पड़ता है। नहीं तो कर्ज लेना पड़ता है। और अनाज के कर्ज का सूद डेढ़ा या सवाई। इस पर भी, जब से अनाज की महंगी हुई- महाजन अनाज के लिए नाक पर माछी नहीं बैठने देता।
“लेकिन यहां माने कौन? यहां सभी श्याम का सिर नोचेंगे, अपने पर नियंत्रण नहीं। प्रभाकर की मां बीड़ी पीने में बड़ी तेज। बीड़ी के लिए पैसा कहां से आता है? आखिर अनाज से ही तो। श्याम परेशान हो जाता। उसका रवैया तो और घर को जड़-मूल से नष्ट करने पर लगा है। अपने दस-पांच रुपये हैं, तो सूद पर लगाती है। लड़कों के कपड़े, फीस, अपने रोग, फिसाद के दवा-दारू की फरमायसी इधर करती है।” श्याम का मन परिवार के इस रवैया से खिन्न हो जाता। भला उस परिवार की हालत क्या सुधरे- जिसकी लक्ष्मी ही नाराज हो? पारिवारिक कलह की बात तो और। सब दिन तो, ठीक रहते- लेकिन श्याम के घर में पहुंचते ही, घर में एक कोलाहल मच जाता! विमाता चुड़ैल- सी मुंह बनाये सामने आती। न वात्सल्य का भाव, न प्रसन्नता का, न संतोष और सहानुभूति का कोई चिह्न। यह भी श्याम के भाग्य की खोट ही थी।ट
वह बड़ा धीर था। उसे कभी-कभी समीर का अभाव खटकता। फिर अपने को मन को परितोष देता- ठीक ही है कहीं भी शांति से तो है, यह कुहराम तो रोज उसे नहीं मिलता होगा? उसका, जीवन के संबंध में दृष्टिकोण ही बदल जाता।
श्याम का जीवन इतना संयमित और कार्यबहुल था कि अपनी पत्नी, पुत्री के संबंध में कुछ भी सोचने का उसे अवकाश नहीं था। उसकी पत्नी को यह लालसा लगी ही रहती कि वे उसके हाथ में बाहर से लाकर कुछ देते। किन्तु श्याम से ऐसा नहीं होने को था। अपने दैनिक जीवन की व्यस्तता में वह इन छोटी-छोटी बातों को ख्याल में नहीं ला सकता। ‘वह परिवार का भावी मालिक है, सबसे बड़ा भाई है भला ऐसा करेगा तो पारिवारिक मर्यादा घटेगी।’ उधर विमाता का कोप उस पर रहता ही था।
जब वे बाहर से कुछ लाकर पत्नी को नहीं देंगे तो आखिर देगा कौन? विमाता भी तो वैसी नहीं है। वह भी स्त्री है। उसे भी दूसरे के लिए अपने को संवारना पड़ता है। अब पुराना जमाना नहीं है। गांव के बाहर रहनेवाला कौन लड़का अपनी पत्नी के लिए कुछ नहीं लाता? सभी लाते हैं। एक साबुन ही हुआ। समाज की मर्यादा भी तो नया रूप लेती है। आज की यही रीति है। आखिर पत्नी अस्वस्थ हो जाय तो उसे कौन शहर ले जायगा। पति ही तो?”  ऐसा लोग कहते सुने जाते।
श्याम कुछ सलज्ज था। साथ ही विमाता के आतंक से भी ऐसा नहीं करने पाता था। यदि श्याम ऐसा कुछ भी करता तो विमाता तुरत पटिदारी का नाम लेकर लोगों के बीच नाक धुनना शुरु कर देती। इसीलिए श्याम सब जान, समझकर भी उसे दबाता।
श्याम के लाख प्रयत्न के बाद भी परिवार की स्थिति में सुधार के लक्षण नहीं दीख पड़े। बीमारी तो घर में ही थी, वह छूटे तब न परिवार स्वस्थ हो। बाबूजी को भी घर की परिस्थिति से उदासीन देख श्याम ने सब कुछ छोड़ दिया। परिवार जाय जहन्नुम में। क्या करता, आखिरकार कोई उपाय तो न था। यह तो जमाना ही है- कोई खाते-खाते मरे, कोई कमाते-कमाते। अब आशा का बादल एक समीर ही रह गया था, उससे छांह ले तब, पानी ले तब, जो ले।
इधर कई दिनों से समीर कुमार काफी उदास हैं। खाना भी भरपेट नहीं खाता। जाने क्यों आज उसे घर की याद नहीं भूलती। जिस घर-परिवार की याद को पांस-सात साल के बाहरी जीवन में उसने थोड़ा-बहुत महत्व दिया था। जाने क्यों आज वह इतनी प्रबल हो चली है। उसकी स्मृति की दृष्टि में घर से वहां तक की लम्बी दूरी आ जाती। वहीं से वह अपने परिवार घर को छूना चाहता। बाहें फैलाता पर व्यर्थ। यों ही लेट गया। ताकते-ताकते आंखें झेंप गयीं।
समीर कुमार ने स्वप्न देखा- “फागुन का महीना। होलिकोत्सव से दो दिन पूर्व, सो गांव के ऊपर का आकाश धूमाच्छादित। हवा की सनसनाहट के साथ पूरा गांव धू-धू कर रहा है। देखते ही देखते घर के घर भस्म हो गये। टाट-फूस और माटी के। ईंटे के कुछ बचे। जो कुछ घर बचे, वे दीवाल मात्र थे। सारे सामान राख हो गये थे।”
अरुण के पैर जल गये थे। वह बिलख कर रो रहा था। घर में रुपये नहीं कि दवा-दारु हो। श्याम को यह घटना देर से मालूम होती है, लेकिन वह होली से पहले ही आ जाता है। तहस-नहस में मिले परिवार की दशा से उसको काफी पीड़ा होती है। एक-एक पैसा जमा करके उसने घर बनाने की योजना बनायी थी…।
समीर के पिताजी सोचते थे- “अरुण ने कथा कहकर बताया था कि समीर भैया पढ-लिख लेंगे तो सब दुःख दूर हो जायगा। पर क्या हुआ? पाल-पोस कर बड़ा किया। पर दुर्दिन में कोई पानी देनेवाला तक नहीं। उसका सुख ही क्या जाना?
नौकर ने आकर धीरे से कहा- “मालिक! मालिक!! सबेरा हो गया।” आज उसने बहुत बड़ा भारी दुस्वप्न देखा। घर पर अवश्य कुछ-न-कुछ अनिष्ट हुआ है। विविध तर्क-वितर्क के साथ खिन्न मन इधर-उधर घूमता रहा।
समीर कुमार ने व्यवसाय से काफी रुपये कमाये थे। रुपये की उपयोगिता को उन्होंने कटु अनुभव के साथ समझा था और शहरी मित्रों की छल वृत्ति ने शहर के साफ चेहरे की ओर से उन्हें सावधान कर दिया था। अब उनका ख्याल गांव में जाकर घर की स्थिति सुधारने की ओर था……..

ट्रेन से घर चला। पिताजी और परिवारवालों के सपने और सपने, अपने लाभ, यश की आकांक्षायें, उसके मानसव्योम में नये-नये जलद-खंडों-सी उमड़-घुमड़ रही थीं। लाभ-लाभ, यश, सपने और सपने के साथ उसने पाया, एक दुर्घटनाग्रस्त ट्रेन में हजार-हजार मुड़े-तुड़े नोटों की तरह वह चिपकता चला जा रहा है………..।        
अधिमूल्यन
डॉ. शुकदेव सिंह, हिन्दी विभाग, बिहार विश्वविद्यालय (सितंबर, 1967)
-सपने और सपने की शैली नयी है। फोटोग्रैफी की यथातथ्य चित्रमयता और अनेक अमूर्तों की मुद्रा-वाही स्थिरता इस कृति में सर्वत्र मिल जायेगी। यात्रायें हैं, स्थान–परिवर्तन हैं, स्कूल, कॉलेज, गांव, शहर के व्यापक बिम्ब हैं। लेकिन सर्वत्र दृष्टि का एक ऐसा शीशा है, जो चश्मे की तरह देखता है और आईने की तरह धारण करता है। इसीलिए कैनवास और छवियां दोनों सुन्दरम की अपनी कृति जान पड़ती हैं।
– सपने और सपने की भाषा में ठहराव है, इसलिए कि उसमें गतिशील भाषा की संभावनाओं को आयत्त कर लिया गया है। व्याकरण टूट जाय, बोलियों के स्पर्श-पर-स्पर्श आ जायें लेकिन, बराबर लगता है कि एक चिन्तनधर्मी व्यक्ति अपने पात्रों और वातावरण की संपूर्ण भावाभिव्यक्ति को बुनने के लिए भाषा की इतनी चिन्ता करता है कि उसकी भाषा कई बार संकर बन जाती है।
– सपने और सपने में स्त्री पात्र प्रायः नहीं हैं। श्रृंगार के अभाव को भरने के लिए अध्यात्म का उपयोग किया गया है। वैज्ञानिक अति की नियति इसी अध्यात्म की ओर भागती आ रही है। बीटल गायकों की योग दीक्षा और वीटनिकों का साधुजन-प्रिय गांजे की गंध में डूब जाना उसी नियति के संकेत हैं। कौन जाने सुन्दरम की यह कृति इसी दृष्टि से आज का नहीं कल का उपन्यास प्रमाणित हो जाय।
– सपने और सपने का दुःखान्त, व्यक्ति का ही दुःखान्त है, लेकिन उसके लिए नहीं, जो मुड़े-तुड़े नोटों की तरह ट्रेन दुर्घटना में लोहे की दीवारों से चिपक जाता है। बल्कि उसके लिए, जिसके लिए उसे 
जीवित रहना था। मृत्यु इसी अर्थ में, मृत व्यक्ति की नहीं, उससे सम्बन्धित व्यक्तियों के लिए होती है।