मंगलवार, 15 अक्तूबर 2019

#GandhiSankalpYatra @Champaran तस्वीरों में- फोटो- राजित सिन्हा, वरिष्ठ पत्रकार और चिवनिंग स्कॉलर
















मंगलवार, 8 अक्तूबर 2019

जेएनयू के 50 साल- कुछ यादें

जेएनयू परिवार के अविस्मरणीय किरदार
डॉ. कुमार कौस्तुभ

जेएनयू की स्थापना के 50 साल पूरे हो रहे हैं और पिछले कई दिनों से फेसबुक पर करीबन 83-84 ऐसी चीजों की लिस्ट तैर रही है जिनसे हर जेएनयू-वासी का कभी न कभी वास्ता जरूर रहा। इस सिलसिले को आगे बढ़ाते हुये यादें जेएनयू के कुछ अविस्मरणीय किरदारों की-

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय परिसर में गुजारे गए तकरीबन 10 साल बेहद यादगार हैं। वैसे तो, शायद ही जेएनयू का कोई ऐसा विद्यार्थी होगा जिसके जेहन में कैंपस की स्मृतियां बरकरार न हों, लेकिन हर आदमी की अपनी यादें हो सकती हैं, अपने अलग अनुभव हो सकते हैं, जो बहुत सारे लोगों के लिए कॉमन भी हो सकते हैं। यूनिवर्सिटी कैंपस में या किसी भी जगह लंबे प्रवास का फायदा यह होता है कि आप वहां के चप्पे-चप्पे को जान चुके होते हैं, वहां लगातार बने रहनेवाले चेहरों को पहचानते हैं, चाहे वो शिक्षक हों या कर्मचारी, जो वहीं शायद अपना कार्यकारी जीवन व्यतीत करने के लिए बाध्य होते हैं, जबकि छात्र तो विश्वविद्यालय में महज कुछ वर्षों के लिए मेहमान की तरह आते हैं और पढ़ाई पूरी होने के बाद नौकरी या रोजगार के लिए नए ठिकाने की ओर निकल जाते हैं। जेएनयू शायद देश का अपनी तरह का अकेला या शायद पहला ऐसा संस्थान है, जहां छात्रों को बीए से लेकर पीएचडी और यहां तक कि पोस्ट-डॉक तक यानी एक ही साथ, लगातार दस साल से ऊपर, 12 से 15 साल तक पढ़ाई करने और वक्त गुजारने की सुविधा हासिल हो जाती है, जो ऐसा करना चाहते हैं और इसके लिए जरूरी अर्हता रखते हैं। और यही नहीं, कैंपस में इतना समय गुजारनेवाले चंद छात्रों में कुछ इतने भाग्यशाली भी रहे हैं जिन्हें कैंपस में ही शिक्षण की नौकरी मिल जाती है और तय हो जाता है कि वो अपना कार्यकारी जीवन यहीं बितानेवाले हैं। ऐसे बहुत से छात्र जेएनयू में हैं, जो यहीं पढ़े और अब यहीं पढ़ाते हुए अपना जीवन व्यतीत कर रहे हैं। जाहिरा तौर पर, उन्हें जेएनयू में समय के साथ हो रहे बदलाव को देखने और महसूस करने का अधिक अवसर मिल रहा है बनिस्पत उन छात्रों के, जो बीए, एमए, एमफिल और हद से हद – पीएचडी करके यहां से बाहर निकल लिए। फर्क यही है कि कैंपस में अब शिक्षक के रूप रहनेवाले पूर्व छात्रों के लिए शायद कुछ भी अविस्मरणीय नहीं होगा, यहां जो भी है, वो उनके रोजमर्रा के जीवन का हिस्सा है, चाहे वो लायब्रेरी कैंटीन चलानेवाले गोपालन, गंगा ढाबे के सुशील, केसी यानी कमल कॉम्प्लेक्स के चाय-समोसे-जलेबी बेचनेवाले चौधरी हों, एसआईएस कैंटीन चलानेवाले बाबू हों, या फिर वहां फोटोस्टेट की दुकान चलानेवाले बीरेंद्र डबराल हों, या कोई शिक्षक हों, या फिर कोई कर्मचारी- जिनसे उनका रोज ही मुखामुखम होता है, रोज ही मुलाकात होती है, दुआ-सलाम होती है, हाल-चाल होता है। लेकिन मैंने जेएनयू में गुजारे गए करीबन 10 साल में जेएनयू परिवार में बहुत-से ऐसे किरदार देखे, जो भुलाए नहीं जा सकेंगे। आमतौर पर ऐसा होता है कि आप लंबे समय तक कहीं रहते हैं तो वहां आपके आस-पास रहने और काम करनेवाले कुछ लोगों के साथ ऐसा राब्ता कायम हो जाता है जो बाद तक जारी रहता है। हालांकि समय की शिला पर वक्त के थपेड़ों के साथ ऐसे बहुत से परिचयों का नामोनिशान मिटते भी देर नहीं लगती, क्योंकि संपर्क टूट जाते हैं, तो उनका कोई मानी-मतलब भी नहीं रहता। यह भी सत्य है कि कैंपस में कई परिचय किसी-न-किसी निजी काम की वजह से बनते हैं और जरूरत खत्म होने के बाद लंबे समय तक संपर्क नहीं रहने पर उनका वजूद भी मिट जाता है। ऐसा भी होता है कि किसी व्यक्ति के साथ लगातार कई दिन, कई महीने बिताए गए हों, लेकिन बरसों बात मुलाकात होने पर वो गर्मजोशी नहीं दिखती और एक अजनबीयत का एहसास सा होता है। ऐसा इसलिए भी है कि निजी और सार्वजनिक जीवन में हर कोई अपने-तईं मशरूफ है और जगह बदलने के साथ सर्कल भी बदल जाते हैं, नई जगहों पर नए दोस्त बनते हैं, नए परिचय बनते हैं। इसके बावजूद, उस जगह पर बिताए गए दिनों से जुड़ी कई बार कुछ धुंधली-सी स्मृतियां बरकरार रह जाती हैं, जो बाद के वक्त में किसी-किसी किरदार की झलक जेहन में दिखला ही जाती हैं।

अभी हाल ही में 1 जुलाई 2019 को माइकल की असामयिक मौत की खबर सोशल मीडिया के माध्यम से मिली। 90 के दशक में जेएनयू में पढ़ा शायद ही कोई व्यक्ति होगा जो माइकल को नहीं जानता-पहचानता रहा हो। हमने भी माइकल को लायब्रेरी कैंटीन के वेटर के रूप में ही देखा था। सोशल मीडिया से पता चला कि बाद में वो मेस वर्कर का काम भी करने लगे थे। माइकल मेरे लिए ही नहीं, बल्कि जेएनयू के उस दौर के पूर्व छात्रों के लिए भी अविस्मरणीय किरदार हो सकते हैं। वैसे तो लायब्रेरी कैंटीन में बहुत से वर्कर और वेटर रहे होंगे, लेकिन माइकल की ही याद क्यों? मैंने कभी माइकल को कुछ बोलते नहीं सुना, लेकिन छात्रों के बीच उनकी लोकप्रियता से कोई इंकार नहीं कर सकता। माइकल का नाम माइकल कैसे पड़ा, क्या उनके परिवारवालों ने ही ये नाम दिया था, या फिर इसके पीछे कोई और कहानी है, ये भी साफ-साफ नहीं मालूम। लेकिन इतना जरूर है कि 90 के दशक में जब पॉप सिंगर माइकल जैक्सन की लोकप्रियता बुलंदी पर थी, तो उस वक्त जेएनयू कैंपस में भी एक माइकल था, जो सिंगर तो नहीं था, लेकिन छात्रों के बीच पसंदीदा जरूर था। माइकल कहां से आया था, और कब से जेएनयू में था, ये तो लायब्रेरी कैंटीन को चलानेवाले गोपालन या उनके बच्चे ही बेहतर बता सकते हैं। बहुत मुमकिन है कि माइकल का असली नाम कुछ और रहा हो, लेकिन माइकल जैक्सन की शोहरत ने उन्हें भी माइकल बना दिया। माइकल को कई बार गानों पर डांस भी करते देखा गया, जो जैक्सन से उनके साम्य को दर्शाता है। माइकल ने जेएनयू में ही अपनी जिंदगी के कम से कम दो दशक तो गुजार ही दिए। अपनी चाल-ढाल, अपने बर्ताव के कारण माइकल ने कैंपस में अच्छी पहचान बना ली थी, लेकिन जेएनयू कैंपस में बरसों गुजारने के बाद भी माइकल की जिंदगी में कोई बदलाव आया हो, ऐसा कभी नहीं दिखा। कहने को कहा जा सकता है कि बदलाव की बात करनेवाले जेएनयू में माइकल उस ठहराव के प्रतीक, उस स्थिरता की प्रतिमूर्ति थे, जहां पहुंचकर क्रांति के तमाम प्रतिमान सवालों से घिर जाते हैं। जेएनयू के छात्रों, शिक्षकों, कर्मचारियों के लिए माइकल एक कैंटीन या मेस वर्कर थे और उसी रूप में उनका अंत भी हुआ। माइकल के व्यक्तित्व से बदलाव का कोई मॉडल भी निकल सकता है, इसके बारे में शायद कभी कुछ सोचा ही नहीं गया और सोचा भी नहीं जा सकता, क्योंकि जेएनयू जैसी जगह पर माइकल जैसे लोग कभी बदलाव के केंद्र में रहे ही नहीं। बहरहाल, माइकल अब नहीं हैं, लेकिन माइकल का किरदार अविस्मरणीय रहेगा।

अब बात कवि रमाशंकर यादव विद्रोही की...गंगा ढाबे पर अक्सर पाये जानेवाले कृषकाय विद्रोही लोकप्रिय जनकवि के रूप में जाने जाते हैं। विकिपीडिया पर दर्ज जानकारी के मुताबिक, विद्रोही 1980 में एमए के छात्र के रूप में जेएनयू आए थे और फिर यहां से लौटकर नहीं गए। 1983 में छात्र आंदोलन के बाद उन्हें यूनिवर्सिटी से बाहर कर दिया गया था, लेकिन वो कैंपस में रहे। 8 दिसंबर 2015 को उनका देहावसान हो गया। जानना जरूरी है कि विद्रोही क्यों अविस्मरणीय हैं। विद्रोही को अक्सर गंगा ढाबे पर कुछ बड़बड़ाते हुए, कई बार गालियां बकते हुए भी सुना जाता था। जनकवि के रूप में उनकी पहचान तो थी ही, और बताया जाता है कि 2011 में उनकी कविताओं की किताब भी छपी, उनके ऊपर भी किताबें लिखी गईं। लेकिन, एक ईमानदार आंदोलनकारी विद्रोही की आखिरकार क्या गति हुई? उस जेएनयू कैंपस में विद्रोही ने त्यागे प्राण, जहां वो एक समय सुनहरे भविष्य के सपने संजोकर आए होंगे। संभव है, अपनी स्थिति के लिए विद्रोही खुद भी जिम्मेदार रहे होंगे, लेकिन, विद्रोही का जो जीवन रहा, वो जेएनयू में क्रांति की अलख जगानेवालों के लिए भी सवाल खड़े करता है।

जेएनयू में ऐसे भी लोग आए, जिन्होंने अपने पुरुषार्थ की बदौलत अपनी अलग पहचान बनाने में कामयाबी हासिल की। ऐसे विरल चरित्रों में से एक हैं शहजाद इब्राहिमी। 1993 में बिहार के लखीसराय से स्कूल ऑफ लैंग्वेजेज के भारतीय भाषा केंद्र में उर्दू में एम ए की पढ़ाई करने पहुंचे शहजाद इब्राहिमी ने उर्दू लिटरेचर में एमफिल और पीएचडी तक कर डाली। लेकिन, पेट की आग जो न कराए। इब्राहिमी ने पीएचडी खत्म करने के बाद कैंपस में कैंटीन चलाने का काम शुरू किया और न सिर्फ उसे अपनी कमाई का जरिया बनाया बल्कि अपने क्षेत्र के कई लड़कों को रोजगार देकर उन्होंने उद्यमिता की नई मिसाल कायम की। डाउन कैंपस में तत्कालीन स्कूल ऑफ फिजिकल साइंसेज से शुरू हुआ शहजाद का कारोबारी सफरनामा एडमिन ब्लॉक के पीछे बनी कैंटीन तक परवान चढ़ा। कैंपस में मामू के नाम से जाने जानेवाले और छात्र-छात्राओं के चहेते शहजाद बेहतरीन शायर और गायक भी हैं। अक्सर हॉस्टल नाइट्स में अपनी अनूठी कव्वाली, गायकी और शायरी से रंग जमानेवाले शहजाद पढ़ाई में भी पीछे नहीं रहे। अपने विषय पर पकड़ के अलावा उर्दू कैलिग्राफी में भी उनका कोई जोड़ नहीं। शहजाद ने कैंटीन के काम के अलावा मीडिया में भी जगह बनाने की कोशिश की, लेकिन मीडिया की दुनिया उन्हें रास नहीं आई। आखिरकार वो पीएचडी चायवाले मामू के रूप में मशहूर हो गए और उनकी शोहरत कैंपस से बाहर भी पहुंची। शहजाद इब्राहिमी को 2014 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के शपथ ग्रहण समारोह में भी आमंत्रित किया गया था। कुल मिलाकर शहजाद इब्राहिमी ने कैंपस में एक ऐसी शख्सियत बनाई है, जो रोजगार के लिए भटकते नौजवानों के लिए आदर्श हो सकती है। 1993 से 1997 के बीच झेलम हॉस्टल में हमारे पड़ोसी रहे शहजाद इब्राहिमी जेएनयू के ऐसे अविस्मरणीय किरदार हैं, जो अक्सर याद आते हैं।
जेएनयू में न जाने कितने ऐसे छात्र आए होंगे जिन्होंने अपने दम पर पढ़ाई पूरी की होगी और आगे की जिंदगी जी रहे होंगे। बहुत से लोग अपने बच्चों को जेएनयू में पढ़ाने के लिए लालायित रहते हैं। लेकिन कभी आपने सोचा है कि अधेड़ अवस्था का कोई शख्स जो रिटायरमेंट के करीब हो, अपने बाल-बच्चों को छोड़कर पढ़ाई करने जेएनयू आ सकता है? ऐसे ही एक शख्स मुझे याद आते हैं जिनका नाम है सुरेश प्रसाद। अलीगढ़ के रहनेवाले सुरेश प्रसाद 1993-94 के दौरान रूसी भाषा में बीए कोर्स करने जेएनयू आए थे और उस समय उनकी उम्र 50 साल से ज्यादा तो रही ही होगी। बड़ी दिलचस्प कहानी है सुरेश जी की। हुआ यूं था कि वो अपने बेटे को पढ़ाई के लिए कहते थे और बेटा पढ़ाई करता नहीं था। तो बाप-बेटे ने एक दिन तय किया कि बेटा घर और खेती-बाड़ी संभालेगा और बाप पढ़ाई करेंगे। और फिर सुरेश जी जेएनयू आ गए। जाहिर है, 17 से 20 साल के बीच की उम्र के बीए के छात्र-छात्राओं के साथ घुलना-मिलना मुश्किल था और शिक्षकों को भी शायद उन्हें पढ़ाना कुछ अजीब लगता रहा होगा। लेकिन, जेएनयू का परिदृश्य तो समावेशी है, सबको अपना लेता है। सुरेश जी ने जेएनयू में पढ़ाई शुरू कर दी और जहां तक मुझे लगता है, बीए तो उन्होंने पूरा कर ही लिया। पता नहीं अब सुरेश जी कहां हैं और किस हाल में हैं, लेकिन, पढ़ाई के प्रति उनकी लगन और दिलचस्पी स्मरणीय है और वो खुद जेएनयू के अविस्मरणीय किरदारों में से एक रहेंगे।
जेएनयू के हर छात्र के लिए यादगार होती है जनवरी से मार्च-अप्रैल के बीच कैंपस में होनेवाली हॉस्टल नाइट्स, जब हर हॉस्टल में अलग-अलग तारीखों को बड़े पैमाने पर सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन होता रहा है और आखिर में एक दिन शानदार गेट-टुगेदर, डिनर के साथ समापन। छात्रों के बीच एकरसता के माहौल को तोड़ने की और छिपी हुई प्रतिभाओं को सामने लाने के लिए ये अच्छी परंपरा रही है। झेलम, पेरियार और कावेरी की हॉस्टल नाइट्स में मुझे शामिल होने का अवसर मिला और इस दौरान सांस्कृतिक कार्यक्रमों में जिन बेमिसाल प्रतिभाओं से रू-ब-रू हुआ, उनमें से एक थे झेलम में रहनेवाले हिंदी के छात्र डॉ. हरिओम जो बाद में उत्तर प्रदेश में वरिष्ठ आईएएस अफसर बने और प्रशासनिक सेवा के अलावा अपनी गायकी और गजल लेखन से भी देश में शोहरत हासिल कर रहे हैं। उनके अलावा, पेरियार के आलोक कुमार दास जो संभवतः इंग्लिश और लिंग्विस्टिक्स के छात्र थे और इसी हॉस्टल के संजीव चौधरी जो रशियन सेंटर के छात्र थे, गायकी के साथ-साथ मिमिक्री में भी माहिर थे। ये दोनों अपनी मधुर आवाज के लिए जाने-जाते थे और कैंपस के हर सांस्कृतिक आयोजन में इनको बुलाया जाता था। इन प्रतिभाओं को भले ही राष्ट्रीय स्तर पर कोई मुकाम हासिल होते नहीं देखा, लेकिन जब तक ये कैंपस में रहे, तब तक इनके हुनर से माहौल अक्सर गुलजार होता रहा। ऐसी ही एक और अविस्मरणीय प्रतिभा थीं इंटरनेशनल स्टडीज़ की छात्रा रविंदर कौर, जिन्होंने एक बार झेलम या गंगा नाइट के दौरान और कई और मौकों पर मशहूर गायिका रेशमा के सदाबहार गीत “बड़ी लंबी जुदाई” को उनकी ही जैसी आवाज में गाकर समां बांध दिया था। रविंदर कौर अब डेनमार्क के विश्वविद्यालय में शिक्षण से जुड़ी हुई हैं।   
1993 और उसके बाद के दौर की बात करते हुए एक और चेहरा याद आता है झेलम हॉस्टल के अध्यक्ष रहे बाबुली नायक का। ओड़िशा के बाबुली नायक तकरीबन उसी समय झेलम हॉस्टल के अध्यक्ष बने थे, जब बिल क्लिंटन अमेरिका के राष्ट्रपति बने थे। लिहाजा, झेलम के निवासी बाबुली नायक को प्यार से बिल क्लिंटन कहकर बुलाते थे। ये वो दौर था, जब प्रख्यात अर्थशास्त्री योगेंद्र कुमार अलघ जेएनयू के कुलपति थे। जेएनयू के कुलपति के रूप में प्रो. अलघ भी अविस्मरणीय व्यक्तित्व हैं। जेएनयू के इतिहास में शायद कोई ऐसा कुलपति नहीं हुआ होगा और न होगा जो छात्रों के आंदोलन के जवाब में खुद भी धरने पर बैठने की हिम्मत करे। प्रो. अलघ छात्रों के आंदोलन के खिलाफ पिंक पैलेस पर खुद भी धरने पर बैठे थे। कैंपस के रिंग रोड पर उन्हें अक्सर शाम को या सुबह शॉर्ट्स में जॉगिंग करते भी देखा जा सकता था। वो ऐसे कुलपति थे जिन्होंने तमाम हॉस्टलों में जाकर मेस में छात्रों के साथ खाना खाया और माहौल में सकारात्मक बदलाव लाने की कोशिश की। 1996 में केंद्र सरकार में मंत्री बनाए जाने के कारण उन्हें कुलपति का कार्यकाल बीच में ही छोड़ना पड़ा। प्रो. अलघ जेएनयू के शिक्षक नहीं थे, लेकिन, कार्यकाल के दौरान अपने बर्ताव और व्यक्तित्व के कारण प्रो. अलघ ने जेएनयू के तत्कालीन छात्रों के बीच अपनी अलग पहचान जरूर बनाई।
कैंपस के अविस्मरणीय किरदारों में शिक्षकवृंद के कुछ सदस्यों को भी याद करना बनता है। इतिहासविद प्रो. बिपन चंद्र, रोमिला थापर और हिंदी के शलाका पुरुष नामवर सिंह ने यहां लंबा वक्त गुजारा, तो कम बोलनेवाले हिंदी के प्रतिष्ठित कवि केदारनाथ सिंह की कर्मभूमि भी जेएनयू ही रहा। प्रख्यात समाजशास्त्री योगेंद्र सिंह भी जेएनयू में पढ़ानेवाले शिक्षाविदों में से रहे हैं। वहीं, अपनी कड़क आवाज और दूर तक सुने जानेवाले ठहाके के लिए मशहूर राजनीति शास्त्र के विद्वान प्राध्यापक सीपी भांबरी भी इस कैंपस का हिस्सा रहे। शिक्षकवृंद में एक अविस्मरणीय चेहरा जर्मन भाषा के शिक्षक बादल घन चक्रवर्ती का भी है, जो कैंपस के वामपंथी-बहुल माहौल में शायद उस वक्त इकलौते दक्षिणपंथी शिक्षक थे। उनके करीयर पर दक्षिणपंथी रुझान का क्या और कितना असर पड़ा, ये तो नहीं मालूम, लेकिन, इतना जरूर था कि हाफ कुर्ते और चश्मेवाले उस दुबले-पतले शिक्षक को कैंपस की बहुसंख्य जनता अलग ही तरीके से जानती और देखती थी।
अरावली की पहाड़ी श्रृंखला पर करीब 70 एकड़ भूभाग पर बसा है जेएनयू। मुनिरका के सामने ईस्ट गेट से लेकर कटवारिया सराय की ओर बने नॉर्थ गेट तक के बीच कैंपस में एक दर्जन से ज्यादा हॉस्टल हैं, कैंपस के अंदर ही रहवासियों के लिए दुकान से मकान तक सारी सुविधाएं उपलब्ध हैं। और यह सिलसिला 1969 से चला आ रहा है। 1974 से नये कैंपस में पठन-पाठन और निवास की व्यवस्था शुरू होने के बाद से कैंपस में छात्रों-शिक्षकों-कर्मचारियों और उनकी छोटी-छोटी जरूरतें पूरी करनेवाले कारोबारियों के बीच अपनापन का जो माहौल विकसित हुआ, वो कमोबेश अभी भी बरकरार है।
ओल्ड या डाउन कैंपस से ऊपर, नए कैंपस में आकर पूर्वांचल में सैलून चलानेवाले मुन्ना को जेएनयू के पुराने छात्र जरूर पहचानते होंगे और उन्हें भी शायद बहुत-से ऐसे चेहरों की याद होगी। इसी तरह, गंगा ढाबे या केसी की दुकानों के अलावा, उत्तराखंड, दक्षिणापुरम और पूर्वांचल में हर हॉस्टल-गुच्छ के आसपास चाय-नाश्ते के ठीये लगानेवाले छोटे दुकानदारों से भी बनी आत्मीयता का एहसास उन छात्रों को बरसों बाद कैंपस लौटने पर भी होता है, जो उनके नियमित ग्राहक हुआ करते थे। केसी (कमल कॉम्प्लेक्स) में पान बेचनेवाले पूरन हों या गंगा ढाबे पर पान और रोजमर्रा की जरूरत के सामान बेचनेवाले बिट्टू को भला कौन भूल सकता है। कई ऐसे चेहरे तो जेएनयू में ही जवान और बुजुर्ग हो गए। छात्रों का आना-जाना लगा रहता है, लेकिन ये किरदार तो कैंपस के लिए सदाबहार हैं। इसी तरह हर हॉस्टल के कुछ मेस मैनेजर और कर्मचारी भी हैं, जो अपने अच्छे बर्ताव और आत्मीयता के कारण छात्रों की यादों में बने रहते हैं। झेलम हॉस्टल में बिताए गए 5 साल के दौरान मेस मैनेजर द्वारिका जी और हॉस्टल के स्टाफ प्रेम जी अब शायद सेवानिवृत हो चुके होंगे, लेकिन, छात्रों के प्रति उनका मधुर व्यवहार यादगार है।
जेएनयू की एक और शख्सियत जो भुलाए नहीं भूलती, वो हैं मिस्टर हैमिल्टन! 1992 और उसके आसपास के दौर में हैमिल्टन जी डीन ऑफ स्टूडेंट्स वेलफेयर के दफ्तरमें कार्यरत थे और छात्रों को हॉस्टल एलॉट किया करते थे। बताया जाता है कि वो छात्रों को खासतौर से झेलम हॉस्टल एलॉट करने के लिए “कुख्यात” थे, खासतौर से वो छात्र जो पेरियार या नर्मदा में रहने की सोच रखते थे, उनके “फोलियो”(दाखिले से संबंधित फॉर्म) पर हैमिल्टन का सिक्स्थ सेंस झेलम की ही मुहर लगवा देता था, जिसे बदलना संभव नहीं होता था। हैमिल्टन अब कहां हैं, पता नहीं, लेकिन हॉस्टल आवंटन को लेकर छात्रों के बीच उनका भय अब भी याद आता है। 
सक्रिय छात्र राजनीति के लिए देश में सबसे ज्यादा चर्चित कैंपसों में से एक है जेएनयू और इस कैंपस ने देश को कई ऐसे नेता दिए हैं, जिन्होंने राष्ट्रीय स्तर पर पहचान बनाई है, राष्ट्रीय राजनीति पर असर छोड़ा है। चाहे वो जेएनयू छात्र संघ के पहले अध्यक्ष रहे देवी प्रसाद त्रिपाठी हों, या मोदी कैबिनेट 2019 में विदेश मंत्री एस जयशंकर और वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण या फिर लेफ्ट के दिग्गजों में शुमार प्रकाश करात, सीताराम येचुरी। यही नहीं, बाद के दौर में, स्व. दिग्विजय सिंह, उदित राज, नासिर हुसैन, शकील अहमद खान, तनवीर अख्तर, सुशील चौधरी, देवेश कुमार, पुष्कर मिश्रा, जतिन मोहंती, अमित जोगी, अशोक तंवर, अजय उपाध्याय, निखिल आनंद जैसे नेता भी इस विश्वविद्यालय की उपज रहे हैं जो राष्ट्रीय और राज्य स्तर की राजनीति में अपना परचम लहरा रहे हैं। जेएनयू की छात्र राजनीति ने देश को कई बड़े नेता दिए और इसकी चर्चा के साथ ही जेएनयू छात्रसंघ चुनाव के दौरान झेलम लॉन में होनेवाली उस प्रेसिडेंशियल डिबेट को भी नहीं भुलाया जा सकता जिसमें हमें कई अप्रतिम वक्ताओं को सुनने का मौका मिला। ऐसे वक्ताओं में शुमार रहे स्व. चंद्रशेखर, प्रणय कृष्ण तो जेएनयू छात्र संघ के अध्यक्ष भी रहे। लेकिन, आलोक चतुर्वेदी और जुबेर अहमद को यहां खासतौर से याद करना जरूरी लगता है। आलोक चतुर्वेदी जहां हिंदी में धाराप्रवाह ओजस्वी वक्तृता के लिए जाने गए, वहीं, जुबेर को धाराप्रवाह भाषण देने में उनकी महारत के अलावा इसलिए भी जाना जाता था क्योंकि वो “धरतीपकड़” के समान बरसों से अध्यक्षीय चुनाव लड़ते आ रहे थे। भले ही ये लोग चुनावी जीत से दूर रह गये हों, लेकिन, अपनी भाषणबाजी से इन्होंने एक अलग पहचान जरूर बनाई थी, जो अभी भी स्मृतियों में बरकरार है।
राजनीति के अलावा और भी तमाम क्षेत्रों में एक से बढ़कर एक विद्वान शिक्षाविद, प्रशासक, वैज्ञानिक और पत्रकार इस विश्वविद्यालय की देन हैं और कैंपस के अविस्मरणीय किरदारों में शुमार हैं। कैंपस में बिताये दिन बेहतरीन रहे हैं और यहां की स्मृतियां ऐसी हैं कि यही कहा जा सकता है- क्या भूलूं क्या याद करूं।
जेएनयू लघु भारत है। इस कैंपस में देश के कोने-कोने से छात्र-छात्राएं आते हैं। और अब तो विदेशों से भी स्टूडेंट्स यहां आने लगे हैं। इस विश्वविद्यालय ने देश के कोने-कोने के लोगों को रोजगार दिया  और रोजगार का रास्ता दिखाया। वैचारिक बुद्धि-विलास के लिए मशहूर इस कैंपस में अब भले ही कुछ अप्रिय घटनाएं सुनने को मिलती हों, लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं है कि इस विश्वविद्यालय ने ऐसी विभूतियां दी हैं, जो देश और दुनिया में कैंपस का नाम रोशन कर रही हैं।
(डॉ. कुमार कौस्तुभ, सीनियर प्रोड्यूसर, टीवी टुडे नेटवर्क, नोएडा
ईमेल- kumarkaustubha@gmail.com, Mobile no. 9953630062)

सोमवार, 16 सितंबर 2019

मोतिहारी पर केंद्रित पुस्तक शीघ्र प्रकाश्य


मोतिहारी पर केंद्रित शीघ्र प्रकाश्य पुस्तक के लिए मोतिहारी शहर पर केंद्रित लेख, संस्मरण आमंत्रित हैं।
कृपया मोतिहारी के, मोतिहारी से जुड़े लोग ईमेल करें-
kumarkaustubha@gmail.com