गुरुवार, 3 दिसंबर 2009

उन काली आंखों का सपना

(यहां हम एक उपन्यास श्रृंखला शुरू कर रहे हैं...कृपया कड़ियों का इंतजार करें..-लेखक)


ऐ गमे दिल क्या करूं, मुस्तके दिल क्या करूं...रिक्शेवाले के रेडियो पर किसी एफएम स्टेशन पर बज रहे गीत ने अचानक सूफी की तंद्रा भंग कर दी. उसके मन में आया कि रिक्शेवाले से पूछे- भाई तुम क्यों ये गीत सुन रहे हो, लेकिन रिक्शेवाला अपनी धुन में चला जा रहा था, सूफी को लगा जैसे उसे कोई परवाह नहीं कि रेडियो में क्या बज रहा है..रिक्शे के सामने पड़े कुत्ते को गंदी सी गाली देकर रिक्शेवाला फिर पैडल पर तेजी से पांव मारने लगा जैसे उसे बेहद जल्दी कहीं पहुंचना हो। रिक्शे की तेजी और सड़क पर लग रहे धचकों से सूफी को यूं लगा जैसे अगर रिक्शेवाला नहीं संभला तो जरूर किसी गाड़ी से उसकी टक्कर हो जाएगी। लेकिन आड़े-तिरछे फिर सीधा हैंडल पक पकड़ बनाते हुए रिक्शेवाला आगे बढ़ता गया। रेडियो पर शायद अब कोई रोमांटिक गीत बजना शुरू हो गया था और शायद रिक्शेवाले को भी उसमें दिलचस्पी आने लगी थी। सामने से एक लड़की को आते देख रिक्शेवाले ने भी सुर मिलाया और आगे बढ़ चला। जानपुल आ रहा था। आगे पुलिया थी और चढ़ाई भी। रिक्शेवाले ने उतरकर खींचने की तैयारी शुरू की तो सूफी को दया आ गई, उसने कहा- रहने दो भाई, य़हीं छोड़ दो, बस आगे तक ही मुझे जाना है, पैदल चला जाउंगा।

लेकिन रिक्शेवाले को शायद ये प्रस्ताव नागवार गुजरा। उड़ती सी नज़र डालकर सूपी पर उसने कहा- अरे साहब यहीं तक आना था, तो पहिले बता देते..यहां से तो कोई सवारीव भी नहीं मिलेगी, वापिस खाली लौटना पड़ेगा।

चलो कोई बात नहीं, मैं तुम्हें पैसे तो कम नहीं दे रहा। आगे तुम्हारी मर्जी। -सूफी ने कहा.

लेकिन रिक्शेवाले को भी शायद तबतक समझ में आ गया था कि पुलिया पर रुककर थोड़ा आराम कर लेना बेहतर है, उसने रिक्शे को किनारे करके बीड़ी सुलगा ली।

सूफी चुपचाप रिक्शे से उतर गया और दस का नोट रिक्शेवाले की तरफ बढ़ा दिया। रिक्शेवाले ने अनमने भाव से नोट अंटी में रखा और बीड़ी के कश लेने लगा।

रिक्शेवाले को छोड़कर सूफी आगे बढ़ा तो सामने से लड्डू बाबू चले आ रहे थे।

अरे कहां से आ रहे हैं लड्डू बाबू- सूफी ने मुस्कराकर पूछा तो लड्डू बाबू ने थोड़े अनमने अंदाज में जवाब दिया- अरे ऑफिस से आ रहे हैं..साढ़े पांच बज रहा है, कउनो सनीमा देखके थोड़े आएंगे अभी, लेकिन आप कइसे रास्ता भटक गए इधर। इधर तो आपको कबही नहीं देखा, कउनो खास चक्कर है का- ये पूछते-पूछते लड्डू बाबू के चेहरे के भाव बदल चुके थे और अब वो कुछ छेड़ने के मूड में आ गए थे।

सूफी को लगा जैसे उसकी चोरी पकड़ी गई। बचनेवाले अंदाज में उसने कहा- “नहीं लड्डू बाबू, अब हमारा कौन चक्कर रहेगा। इहां त एगो पुराना साथी रहता है आगे, वो ही बुला रहा था बहुत दिन से त सोचे कि थोड़ा सांझ होने से पहिले भेंट-घांट कर लें, फिर मीना बजार से तरकारी अउर सौदा-सुलफ लेके लउट जाएंगे घर”।

लड्डू बाबू ने मशविरा देने के अंदाज में कहा- “उ त ठीक बात है, भेंट-घांट तो होना ही चाहिये पुराना इयार-दोस से, लेकिन ज्यादे देर मत कीजिएगा। इधर आजकल इलाका का हाल-चाल ठीक नहीं है, थोड़ा भी अन्हार हुआ कि छीन-झपट शुरू हो जाती है। अउर आपके पास कुछो नहीं, त मोबाइल अउर सौ-पचास रुपय़ा तो जेबी में रहता ही है- बस बदमाशों को पव्वा-अद्धा के लिए काफी। बाकी आपसे छीनेंगे भी और मारपीट त आम बात है, चार थाप लगा भी देंगे। सलामत घरे आ गए तो बड़की बात है।”

सूफी को लगा जैसे लड्डू बाबू खामखा उसे डरा रहे हैं। उसने कहा- “अरे का बात कर रहे हैं लड्डू बाबू, हम कउनो अनचिन्हार थोड़े हैं, हमहूं इंहे के रहनेवाले हैं, सब जनबे करते हैं, बाकी बखत तो बदलीए गया है नू, आप निफिकिर रहिए, हम जल्दिए आ जाएंगे, खाली आप बाबूजी को जाके मत कहिएगा कि सूफिया को जानपुल के पास देखे थे, नहीं तो उ हमारा क्लास ले लेंगे। आप त जनबे करते हैं नु बुजुर्ग लोगों को चिंता कुछ ज्य़ादा ही होती है”।

लड्डू बाबू ने कहा- “अरे उ कउनो चिंता की बात नहीं है, बाकी हमरा फर्ज था आपको बता देना। आप त बाहर रहते हैं, सो आपको इहां का हाल-चाल केतना मालूम होगा, इ त हम नहीं जानते हैं नू”।

लड्डू बाबू से मिलकर सूफी आगे बढ़ा तो उसे लगा कि क्या वाकई ये शहर इतना बदल गया है कि अब जब जी चाहे कहीं आना-जाना भी मुश्किल। कुछ भी तो नहीं बदला है शहर में – वहीं पुराने जानपुल की रेलिंग जिसे पकड़कर वो मुकेश के घर जाया करता था। माधो सिनेमा की इमारत का रंग भी तो नहीं बदला- गुलाबी रंग में पुती हुई सिनेमाहॉल की ये इमारत अब भी मीलभर दूर से ही अपनी मौजूदगी का एहसास कराती है। और हां- यहीं पर तो ठाकुर साहब का वो बंगला भी है जिसकी चहारदीवारी में कंटीले तार के बाड़े में एक हिरणी खेला करती था। एकबारगी सूफी को तमाम यादें ताजा हो आईं जिनके साए में वो जवान हुआ था। सूफी को मन हुआ कि बंगले के दरवाजे से अंदर जाए और पूछे कि वो हिरणी कहां है..आखिर कितने साल गुजरे..8-10 साल ही तो हुए हैं..लेकिन क्य़ा हिरणी की इतनी उम्र होती है..हिसाब लगाते हुए और अपने जनरल नॉलेज के पन्ने खंगालते हुए सूफी बंगले की ओर बढ़ा लेकिन दरवाजे के अंदर कोई नजर नहीं आया...सूफी को अपने-आप पर बड़ा गुस्सा आने लगा कि आखिर क्यों वो हिरणी के बारे में जानना चाहता है...इधर कोई हिरणी को शौक से पालता भी नहीं, पालेगा तो जेल जाना पड़ेगा..तो कहां गई हिरणी, क्या ठाकुर साहब के घरवाले उसे मारकर खा गए होंगे..

हिरणी की याद आते ही जैसे सूफी के सामने जैसे पुरानी यादों का पूरा पिटारा खुल गया..

मुकेश के रामू चाचा कहा करते थे- बेटा, ठाकुर साहब की हिरणी की आंखों में कभी झांककर देखा है तुमने, उसमें एक दर्द की दास्तान छुपी है।

सूफी को रामू चाचा की ये बात बड़ी अजीब लगती थी, उसने सोचा कभी रामू चाचा से हिरण की आंखों में छुपे दर्द की कहानी पूछे, लेकिन ये मौका नहीं आया..बरस दर बरस गुजरते चले गए ..आठवीं क्लास में पढ़नेवाला सूफी अब नौकरीपेशा युवक बनकर इस सड़क पर लौटा है..सूफी को अपनेआप में कोई बदलाव नहीं लगता..सड़कों को घुमाव भी वैसा ही है जैसा बरसों पहले था..हां खड़ंजे की जगह अब पक्कानुमा सड़क ने ले ली है..लेकिन जिंदगी में न जाने कितने मोड़ आ गए..सूफी को अचानक ठाकुर साहब की हिरणी की काफी याद आने लगी..उसे याद आया कि हिरणी की आंखों के बारे में रामू चाचा की बातें सुनकर उसने उन आंखों में देखने की भी कोशिश की थी..उसे याद आया मुकेश ने उसकी हंसी उड़ाते हुए कहा था..तुम तो लगता है हिरणी की आंखों में अपना संसार खोज रहे हो..हिरण की काली सलोनी आंखों में उसे अपना प्रतिबिंब दिखता था..बाड़े के इस पार हाथ में घास लिए जब वो हिरणी के पास खड़ा होता था तो चरता हुआ हिरणी कुछ पल को ठिठक जाती ..फिर उसकी ओर बढ़ता..पलकें झपकाए बिना हिरणी कुछ पल के लिए उसकी ओर देखती रहती..जैसे कुछ कहना चाहती हो..कितनी अजीब ये दोस्ती थी...कई बार ठाकुर साहब के चौकीदार ने उसे इस तरह हिरणी के करीब खड़े होने पर झिड़का भी था। लेकिन चौकीदार की आंख बचाकर वो हिरणी से मिलने जरूर पहुंच जाया करता था..

सोच में पड़े सूफी के मन में एकबारगी हिरणी का ख्य़ाल आया और वो भूल गया कि उसे किधर जाना है..उसके जूते में सड़क पर पड़े एक पत्थर से ठेस लगी...सूफी अपने-आपको संभाल पाता इससे पहले वो नीचे गिर पड़ा..सामने की तरफ अचानक गिरने से सूफी का पूरा चेहरा धूल-मिट्टी से सन गया...उठने की कोशिश करते हुए उसने नगर निगमवालों को सड़क बनाते समय पत्थर नहीं हटाने के लिए मन ही मन गाली निकाली ..और संभलने की कोशिश करने लगा...
(शेष ..इंतजार करें)

गुरुवार, 12 नवंबर 2009

वन की व्यथा



कट रहे वन उपवन

बना जीवन विजन।

सुख शांति का आगार

बना कारागार

साकार बने निर्जन।

न रहे, वन सघन

न रहे, लता-विटप-सुमन

न रहे, बनपाखी कूंजन-गुंजन

न रहे, स्वजन-परिजन, अमन

व्यथा जन-जन

मन की कहे-

अनमने-भरे-तपे, दुखे

तपोधन-तपोवन।

कटे, कट रहे, वन-उपवन।

व्यथा सबकी कहे,

सूखे-झुलसे

जले वन

कटे, कट रहे, वन-उपवन।

-डॉ. राम स्वार्थ ठाकुर

रविवार, 8 नवंबर 2009

सपने में सपना




सपने में आना सपना
मोबाइल का रिंगटोन
देता है तेरी दस्तक
तेरे आने की आहट
तेरी हंसी की खनक
तेरी पायल की झनकार
आधी रात के बाद भी
रहता है इंतजार
उस रिंगटोन का
जिसमें छुपी है
तेरी आहट
बढ़ जाती है दिल की धड़कन
गायब है नींद
स्याह रातों में
नजर आती है
रोशनी की एक किरण
एक ख्बाब की अनजानी राह
तर्क के तराजू पर
शून्य है भार
दिल के दामन पर
मेरा अपूर संसार
मेरे दिल की पुकार
मेरी तमन्ना
मेरा सपना
....
बातों का वो
सिलसिला अनजाना
जोड़ गया
जिंदगी की किताब में
नए पन्ने
बस गया
सतरंगी संसार
बादलों में खोया हुआ
मैं सो गया
ख्वाब में खो गई रात
खिड़की से झांकती नई सुबह
की घूप ने
तोड़ दिया
सपना मेरा अपना

सोमवार, 12 अक्तूबर 2009

बिंब और प्रतिबिंब

...
रोशनी के उजाले में
बना है प्रतिबिंब
सच्चाई की छाया
में छुपा है जीवन का बिंब
कड़क धूप की कंटीली चमक
बिंब को बेधने की करती है कोशिश
सूर्य की किरणों से
बार-बार लगतार
लड़ता है बिंब
चल रहा है चिरंतन युद्ध
बिंब को घेरते हैं
सूर्य के बाण
रश्मियों के रंग से
घिरा संग्राम
सिर से टपकती
पसीने की बूंदें
पिघलता है आसमान
क्षय होती है ऊर्जा
या
कुंदन बनता है बदन
मेहनत की मार से
भूख से लाचार
जीवन का कारोबार
लगातार..

क़यामत की बातें

...पिघल रहा है
ग्रीनलैंड का हेलहाइम ग्लेशियर
पिघल रहा है
गोमुख
अंटार्कटिका का भी
अंत आ गया क़रीब
क़यामत की बातें
करते वैज्ञानिक
खबर बनता शोध
प्रलय की आहट
अब दूर नहीं
मानवता का महाविनाश
क्या करे इंसान
बुद्धूबक्से पर बैठा उल्लू
डराता है
कहता है
हो जाओ सावधान
हो जाओ सतर्क
समेट लो अपना संसार
खत्म हो जाएगा घरबार
जब आएगा एक दिन
क़यामत का
भोला मन, क्या करे
कहां जाए, क्या खाए
अब दूर नहीं क़यामत
गर्म हो रही है धरती
पड़ जाएंगे खाने के लाले
कैसे भरेगा पेट
समंदर लील लेगा धरती को
सूर्य खा जाएगा हरियाली
धरती पर छानेवाला है अंधेरा
बुरा फंसा बेचारा
नहीं दिखती राह
बस एक आह
आखिर क्यों पैदा हुआ इंसान

गुरुवार, 1 अक्तूबर 2009

सो जाएंगे सिनेमाघर...

मोतिहारी के दो पुराने सिनेमाहॉल बंद होने की कगार पर है। दैनिक जागरण में इस सिलसिले में खबर पढ़कर एक बार फिर अपने शहर की पुरानी यादें ताजा हो गईं। करीब पांच से दस किलोमीटर के दायरे में फैले मोतिहारी शहर में गिनती के सिनेमाहॉ़ल हैं और हमारे जीवन की शुरुआत इन्हीं सिनेमाहॉल्स से जुड़ी है। पायल, संगीत, माधव, रॉक्सी और चित्रमंदिर- ये वो सिनेमाहॉल हैं, जहां मैंने फिल्में देखने के शगल की शुरुआत की..पहले मां और परिवारवालों के साथ, रिश्तेदारों-नातेदारों के साथ और फिर बाद में अपने दोस्तों-सहपाठियों के साथ। रॉक्सी वो सिनेमाहॉल है जिसमें अपने दोस्त प्रसून चौधरी के साथ 80 के आखिरी दशक में मैंने कई हॉरर फिल्में देखी होंगी..हैरत की बात ये है कि उस वक्त भी खस्ताहाल रहा ये सिनेमाहॉ़ल अब तक चलता रहा है..सुना था पिछले दिनों काफी वक्त बंद रहने के बाद ये फिर से शुरु हुआ था..लेकिन अब एक बार फिर ये बंदी की हालत में पहुंच चुका है...वही हाल चित्रमंदिर का,..शहर के मशहूर बलुआ चौक पर बना ये हॉल..अपने जमाने में चर्चित फिल्में दिखा चुका है.. वक्त के थपेड़ों ने शायद इसकी महलनुमा इमारत को तो नहीं हिलाया, लेकिन शायद इसके मालिकों के लिए अब इसे चलाना मुमकिन नहीं ..इन दोनों सिनेमाहॉल्स में बिजली गुल होने पर हम जनरेटर से लाइन आने का इंतजार भी किया करते थे..लेकिन अब वक्त बदल चुका है..शायद सिनेमाहॉल चलाना इन छोटे शहरों में फायदेमंद कारोबार नहीं रहा..टेलीविजन और वीडियो के बढ़े असर के साथ-साथ शहर में गुंडागर्दी के बढ़ते आलम ने लोगों की सिनेमा देखने सिनेमाहॉल जाने की आदत पर असर डाला है..मोतिहारी जैसे छोटे शहर में सिनेमाहॉल सिनेप्लेक्स में तब्दील नहीं हो सके..और मुझे नहीं लगता कि ऐसा हो भी सकेगा..क्योंकि इसके पीछे शहर की अर्थव्यवस्था और सामाजिक परिस्थितियां जिम्मेदार हो सकती हैं..अखबार की खबर के मुताबिक, राक्सी सिनेमा हाल पर 2006 से टैक्स बकाया है। वहीं वर्ष 2004 से हॉल के नवीकरण का मामला भी लंबित है। रॉक्सी पर बिजली विभाग का भी काफी बकाया है..ऐसा ही हाल चित्रमंदिर सिनेमाह़ल का भी है। पायल और संगीत दोनों हॉल एक ही कॉम्प्लेक्स में हैं और एक ही मालिक के हैं..जाहिर है मालिक की व्यापार बुद्धि की कुशलता के चलते दोनों हॉ़ल अब भी बेहतर हालत में चल रहे हैं और शहर के निम्न-मझोले तबके के लोगों के मनोरंजन का अड्डा बने हुए हैं। लेकिन, शहर में सिनेमाहॉल्स का जो हाल है, वो एक तरह से मोतिहारी में सिनेमा देखने की प्रवृति-संस्कृति और संस्कार पर सवाल खड़े करता है..इस सिलसिले में विस्तार से फिर कभी..फिलहाल तो आइए ..अपने शहर में सिनेमाहॉल की स्थिति पर थोड़ा दुखी हो लें..क्योंकि आज यहां चाहे जो भी हालात हों...हमने सिनेमा देखने का शगल तो यहीं से शुरू किया ...

बुधवार, 30 सितंबर 2009

उत्सव

-डॉ. रामस्वार्थ ठाकुर
आज शाम जब ऑफिस से लौटा तो अपनी कॉलोनी निराला निवेश में एक उत्सवी समां देखने को मिला। दिन के नौ बजे इसका कोई संकेत नहीं मिला था। इसलिए इसे देखकर कुछ सोचने को बाध्य हुआ। उत्सव को आनंदोत्सव भी कहते हैं, मतलब जिस समारोह को खुशी, प्रसन्नता, आनंद से मनाया जाए- वह आनंदोत्सव है। खैर, घर आकर कपड़े उतारा और काम में लग गया। सोचता रहा- यह उत्सव निष्प्रयोजन नहीं हो सकता। हमारे यहां उत्सव भी उपलक्ष्य सापेक्ष व्यापार है। अवश्य इसका कोई कारण होगा। फिर किनकी ओर से मनाया जा रहा है, क्यों मनाया जा रहा है आदि-आदि तमाम सवाल उठने लगे मन में। अपने भीतर प्रश्नों का समाधान नहीं मिला तो नल पर बर्तन मांजती हुई दाई से पूछ बैठा- ये उत्सव कैसा है, किसकी ओर से मनाया जा रहा है। देखा दाई बर्तन मांजने में तन्मय है, उत्सव का उसके मनप्राण पर कोई असर नहीं पड़ा। यह उत्सव मेरे अथवा दाई के लिए नहीं है। य़ह कुछ खास लोगों के लिए है। देखता हूं- दूर-दूर से आमंत्रित लोग आए हैं, आ भी रहे हैं, कारें लगी हैं, पूरा शामियाना आगंतुकों की चहल-पहल, कहकहों-हंसी ठहाकों से गूंज रहा है। कहीं किसी टेबल पर प्लेटों में मिठाइयां परोसी जा रही हैं, तो कहीं पूड़ियां-कचौरियां। ये सब ठीक है। लेकिन, सोचता हूं- क्या इस उत्सव में कोई ऐसा भी व्यक्ति आया है जिससे उत्सव करनेवाले का कोई संबंध न हो..आप कहेंगे, कैसा बेतुका सवाल है- हर व्यक्ति का अपना परिचय क्षेत्र है, रिश्ते-नाते हैं। ऐसे में किसी अपरिचित को कौन बुलाकर अपने यहां खिला-पिला सकता है- मैं इस विचार से थोड़ा असहमत हूं। हम उत्सव मनाते हैं केवल अपनों को सुखी करने और अपने सुख के लिए, क्यो कोई दूसरों को सुखी बनाने के लिए भी उत्सव आयोजित करता है..क्या है कोई ऐसा उत्सव जिसमें आजीवन दुखी रहनेवालों को भी सुख के सुअवसर सुलभ कराने का प्रयास किया जाए..सुभोजन कराए जाएं..सुविधाएं बांटी जाएं..हमारे यहां उत्सव के ऐसे पूप अब तक विकसित नहीं किए गए हैं..अभी तक हमारी सभ्यता का आचरण सुखी को ही सुख पहुंचाने तक सीमित रहा है, जो अपूर्ण है, अधूरा है। उत्सव तो वही सार्थक है, जो हारे-थके-सुख-सुविधाविहीन लोगों को प्रसन्नता बांटने के लिए हो। अब आप उत्सव से दूर उस दाई की मनोदशा का दुखद अनुभव कर सकते हैं जो जीवनयापन के लिए चंद रुपये कमाने की कोशिश में उत्सव से परे अपने काम में जुटी थी।

रविवार, 27 सितंबर 2009

"सबसे खतरनाक होता है, हमारे सपनों का मर जाना..."- पाश

"मेहनत की लूट सबसे खतरनाक नहीं
होती,
पुलिस की मार सबसे खतरनाक नहीं
होती,
गद्दारी, लोभ का मिलना सबसे
खतरनाक नहीं होता,
सोते हुये से पकडा जाना बुरा तो
है,
सहमी सी चुप्पी में जकड जाना
बुरा तो है,
पर सबसे खतरनाक नहीं होता,

सबसे खतरनाक होता है मुर्दा
शान्ति से भर जाना,
न होना तडप का सब कुछ सहन कर
जाना,
घर से निकलना काम पर और काम से
लौट कर घर आना,
सबसे खतरनाक होता है, हमारे
सपनों का मर जाना ।

सबसे खतरनाक होती है, कलाई पर
चलती घडी, जो वर्षों से स्थिर
है।
सबसे खतरनाक होती है वो आंखें
जो सब कुछ देख कर भी पथराई सी है,
वो आंखें जो संसार को प्यार से
निहारना भूल गयी है,
वो आंखें जो भौतिक संसार के
कोहरे के धुंध में खो गयी हो,
जो भूल गयी हो दिखने वाली
वस्तुओं के सामान्य
अर्थ और खो गयी हो व्यर्थ के खेल
के वापसी में ।

सबसे खतरनाक होता है वो चांद, जो
प्रत्येक हत्या के बाद उगता है
सूने हुए आंगन में,
जो चुभता भी नहीं आंखों में,
गर्म मिर्च के सामान
सबसे खतरनाक होता है वो गीत जो
मातमी विलाप के साथ कानों में
पडता है,
और दुहराता है बुरे आदमी की
दस्तक, डरे हुए लोगों के दरवाजे
पर ।"