मंगलवार, 8 अप्रैल 2014

बेकार खबर, बकवास खबर!




टीवी चैनलों के न्यूज़रूम में काम करनेवाले तो बेकार खबर, बकवास खबर की शब्दावली से परिचित होंगे ही, लेकिन पत्रकारिता के किसी आम छात्र के लिए ये तय कर पाना बड़ मुश्किल हो सकता है कि आखिर कोई खबर बेकार या बकवास कैसे हो सकती है? दरअसल, बेकार खबर, बकवास खबर की परिकल्पना खबरिया माध्यम की जरूरत और मानसिकता पर निर्भर है। अगर कोई खबर आपके काम की नहीं है, तो उसे चलताऊ भाषा में आप बड़े आराम से बेकार खबर, बकवास खबर कह सकते हैं। लेकिन, इससे खबर की मूल परिभाषा तो नहीं बदल सकती। खबर की मूल परिभाषा के तहत जो पांच तत्व ‘5 W और 1 H’ किसी जानकारी में होना चाहिए, वो है, तो वो खबर तो है ही, हां किसी व्यक्ति विशेष, चैनल विशेष, अखबार या किसी और माध्यम के लिए अगर कोई खबर काम की नहीं, तो उसे वो खबर के दायरे से अलग मान लेते हैं, ये प्रमुख बात है।
सवाल है कि परिभाषा के खांचे में आने के बावजूद कोई खबर खबर है क्या या कि खबर नहीं है, ये कैसे तय होगा? क्या ये सिर्फ किसी संपादकीय अधिकारी के विवेक का मामला है, या फिर इसके लिए कुछ मानक भी होने चाहिए। दोनों ही चीजें महत्वपूर्ण हैं। समाचार चैनल पर क्या चलेगा, ये तय करना तो संपादकीय अधिकारी का दायित्व है, तो अगर वो ये कहते हैं कि अमुक जानकारी खबर नहीं है या बेकार खबर है, या बकवास है, ये उनके विवेक के हिसाब से बिल्कुल सही माना जा सकता है। लेकिन अगर मानकों की बात करें, तो ये भी ख्याल रखना होगा कि टीवी पर प्रसारित होने के लिए किसी जानकारी या किसी खबर में कौन-कौन से तत्व होने चाहिए। सैद्धांतिक तौर पर तो टेलीविजन पर प्रसारित होनेवाली कोई खबर विजुअल यानी वीडियो और तस्वीरों का मौजूद होना सबसे जरूरी है। विजुअल के बिना खबर टीवी की खबर हो ही नहीं सकती, ऐसा माना जाता है। साथ ही साउंड यानी आवाज, एंबिएंस का भी होना जरूरी है जो घटना का चित्रण करे और उसके बारे में बताए। लेकिन मौजूदा दौर में टेक्स्ट के साथ ग्राफिक्स और एनिमेशन के सहयोग से टीवी पर खबरों को पेश करने का चलन बढ़ा है। ऐसे में किसी खबर को टीवी की खबर बनाने के लिए अगर विजुअल की कमी हो, तो ग्राफिक्स और एनिमेशन का इस्तेमाल प्रोड्यूसर की रचनात्मक प्रतिभा का परिचायक है। हालांकि, हमेशा ऐसा संभव नहीं होता। खबरों से जुड़ी परिस्थितियों और घटना का काल्पनिक चित्रण हमेशा नहीं किया जा सकता। ऐसे में बगैर विजुअल और साउंड के, खबर को थोड़े समय तो चलाया जा सकता है, उसे टीवी जैसे डायनेमिक माध्यम पर ज्यादा देर जिंदा नहीं रखा जा सकता।
खबर की पूर्णता से जुड़ा दूसरा मुद्दा है तथ्यात्मक पूर्णता का। अगर एक लाइन की किसी जानकारी में आवश्यक तथ्यों का अभाव है, तो उससे खबर नहीं बन सकती, बशर्ते किसी तरह से जरूरी तथ्य जुटा लिए जाएं। ऐसे में, एक लाइन की कोई जानकारी बड़े आराम से खबर के तौर पर खारिज की जा सकती है, क्योंकि उससे ये पता नहीं चलता कि वो लाइन कितनी बड़ी खबर को जन्म दे सकती है। लेकिन अगर, चैनल की आवश्यकता हो, और संभव हो, तो उस जानकारी के आसपास, इर्द-गिर्द की और जानकारियां और तथ्य जुटाकर उन्हें खबर बनाया जा सकता है। उदाहरण के लिए, अगर मुंबई में हुए आतंकवादी हमले या केदारनाथ में आई प्राकृतिक आपदा की खबरों की शुरुआती लाइन्स को नजरअंदाज कर दिया जाता तो कई चैनल बहुत बड़ी ब्रेकिंग न्यूज़ में पिछड़ जाते। इससे पत्रकारिता के छात्रों को सबक ये लेना चाहिए कि आपके पास आपके दिमाग में तमाम ऐसी जानकारियां होनी चाहिए, जो किसी भी नई जानकारी के लिए बैकग्राउंडर का काम कर सकती है और उसे बड़ी खबर बना सकती है। खासकर ऐसे वक्त में, जिस दिन खबरों का सूखा पड़ा हो, चैनल को नई खबरों की कमी हो, ऐसे में छोटी-छोटी दिखनेवाली जानकारियां, बड़ी खबरों में तब्दील की जा सकती हैं। इन दिनों सियासी बयानबाजियों से जुड़ी खबरें भी खूब चर्चा में हैं। अगर ऐसी खबरों के न्यूज़मेकर्स की बाइट उपलब्ध न हो, तो खबर देर तक नहीं चल सकती। टीवी के समाचार चैनलों में अक्सर ऐसा होता है, जब किसी नेता की रैली से एक-दो लाइन की जानकारी मिलती है। चाहें तो उसे नजरअंदाज कर दें, या फिर उसके आजू-बाजू, आगे-पीछे की जानकारियों को जोड़कर खबर को बड़ा बना दें। महाराष्ट्र के नेता राज ठाकरे एक ही जैसी बातें अमूमन हर बार बोलते हैं, लेकिन हर बार उनकी एक लाइन से कम से कम 30-40 सेकेंड की खबर बन जाती है।
एक और मुद्दा है घटना से जुड़े हर पक्ष को खबर में शामिल किया जाना। मसलन अगर हादसे, बलात्कार या ठगी के किसी मामले की खबर है और उसमें न पीड़ित की तस्वीर है, ना आरोपी की, तो उसे पूर्ण नहीं माना जाएगा। साथ ही, अपराध संबंधी खबरों में आरोपी और पीड़ित पक्षों के साथ-साथ पुलिस या जांच अधिकारी या प्रशासनिक पक्ष की प्रतिक्रिया नहीं हो, तो उन्हें एकतरफा मानकर बेशक खारिज किया जा सकता है, बशर्ते हादसे या अपराध से जुड़े पुख्ता विजुअल नहीं मौजूद हों। कई बार विदेशों से रॉयटर्स और एपीटीएन से अपराधिक खबरों की ऐसी फीड्स आती हैं जिनमें पर्याप्त विजुअल नहीं होते, ना ही घटना का चित्रण करने लायक पुख्ता सबूत होते हैं। तो ऐसी खबरों को प्रसारण लायक खबरों की श्रेणी में रखना मुश्किल होता है। ऐसा ही, किसी सांस्कृतिक समारोह की करवेज में भी हो सकता है, जिसमें आपके पास इच्छित कलाकार के विजुअल उपलब्ध न हों, तो उन्हें बेकार या बकवास करार देकर किनारा किया जा सकता है।
हालांकि एक बात ध्यान में रखनी चाहिए औ र अमूमन रखी भी जाती है कि कई बार कुछ जानकारियों में इतना दम होता है, जो बहुत जरूरी और काम की खबर बन सकती हैं, तो उन्हें विजुअल के अभाव में बेकार या बकवास नहीं करार दिया जा सकता । ऐसी स्थिति में ये प्रोड्यूसर की रचनात्मकता पर निर्भर करता है कि वो फाइल फुटेज, ग्राफिक्स और एनिमेशन का इस्तेमाल करके खबर को मुकम्मल तरीके से पेश करे, न कि उसे अपूर्ण मानकर खारिज कर दे। बड़े नेताओं, पदाधिकारियों के अहम बयानों, सरकारी सूचनाओं , प्रशासनिक जानकरियों वगैरह मामलों की जानकारियों में अक्सर ऐसा होता, जब दिखाने के लिए कुछ भी पुख्ता नहीं होता, लेकिन खबर की भरमार होती है। ऐसे में ये तो प्रोड्यूसर की काबिलियत पर ही निर्भर करता है कि वो कितनी सफाई और चुस्ती से खबर को खबर की तरह पेश करे।
अखबारों के लिए कोई खबर बेकार नहीं होती, क्योंकि वहां छपने के लिए पर्याप्त जगह होती है। यदि संपादकीय अधिकारी चाहें, तो किसी भी जानकारी को जगह देकर खबर बना सकते हैं। यही हाल इंटरनेट और सोशल मीडिया आधारित खबरिया वेबसाइट्स का भी है। रेडियो में भी टीवी से ज्यादा वक्त की कमी होती है, क्योंकि बुलेटिन तय होते हैं और समय सीमित होता है, लिहाजा, वहां भी इस बात का बड़ा ख्याल रखा जाता है कि कौन सी खबर बेकार है या बकवास है।
सबसे बड़ी बात ये है कि चैनल या समाचार देनेवाले किसी भी माध्यम को अपने दर्शक-पाठक और श्रोता वर्ग की पहचान होनी चाहिए और उसी के आधार पर ये तय होना चाहिए कि कोई खबर बेकार है या बकवास है या नहीं है। अगर दिल्ली-एनसीआर या मुंबई पर केंद्रित समाचार चैनल य़ा अखबार या रेडियो चैनल या इंटरनेट साइट हैं, तो उन्हें दिल्ली-एनसीआर या मुंबई से जुड़ी हर खबर किसी न किसी तरीके से लेनी चाहिए, क्योंकि लोगों की दिलचस्पी उनमें होगी ही होगी। इसी तरह राष्ट्रीय टीवी चैनलों, अखबारों, से ये अपेक्षा की जाती है कि वो कश्मीर से कन्याकुमारी और गुजरात, गोवा से गुवाहाटी तक की खबरों को कवर करें और प्रसारित करें,न कि सिर्फ दिल्ली या मुंबई तक केंद्रित रहें। हालांकि टीवी चैनलों की अपनी सीमाएं हैं, जिनकी वजह से उन्हें खबरों के चयन में बेकार और बकवास का बड़ा ख्याल रखना पड़ता है। परंतु, ये भी बात अहम है कि दर्शक देश के हर कोने का हाल जानना चाहते हैं और हर इलाके की उन खबरों को देखना-सुनना चाहते हैं जो किसी भी तरीके से दिलचस्प हो, चाहे वो किसी हादसे की दिल दहलाने वाली तस्वीर हो, या सांस्कृतिक कार्यक्रम की रंगारंग झलक। अगर किसी खबर में तथ्यात्म पूर्णता है और उसके वीडियो, तस्वीरें और साउंड जानदार हैं तो वो खबर बेकार या बकवास नहीं हो सकती। उसे प्रस्तुत करना फायदेमंद ही हो सकता है, नुकसानदेह नहीं।
-          कुमार कौस्तुभ

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