मंगलवार, 23 अप्रैल 2013

स्ट्रिंगरः खबर का कारोबार या पूर्णकालिक रोजगार?




टेलीविजन के समाचार चैनलों को खबरें कितने स्रोतों से मिल सकती हैं, इसका विस्तृत विवेचन पहले किया जा चुका है। लेकिन स्ट्रिंगर्स के बारे में बात किए बगैर ये चर्चा अधूरी है। अंग्रेजी के शब्द स्ट्रिंग का मतलब होता है डोर या तार और इसी से जुड़ा है स्ट्रिंगरजिसका शाब्दिक अर्थ देखें तो यहीं समझेंगे कि वो शख्स जो चैनल से खबरों को जोड़ता है या जो खबर को चैनल तक पहुंचाने में शामिल होता है। टेलीविजन समाचार के स्रोत के तौर पर व्यावहारिक रूप में स्ट्रिंगर कुछ इसी अर्थ में इस्तेमाल किए जाते हैं यानी वो समाचार चैनलों के लिए खबर देनेवालों की श्रेणी में शामिल भी होते हैं और खबरें देकर खबरबाजी के तार भी जोड़ते हैं। चुंकि हर खबरिया घटनाक्रम के मौके पर चैनल के अधिकृत संवादादाता नहीं पहुंच सकते लिहाजा चैनल से खबरों के तार जोड़ने की जिम्मेदारी स्ट्रिंगर पर आ जाती है। व्यावहारिक तौर पर देखा जाए तो टेलीविजन चैनलों में स्ट्रिंगर शब्द वैसे संवाददाताओं के लिए प्रचलित है, जो चैनल के पूर्णकालिक कर्मचारी नहीं होते, ना ही उन्हें नियमित वेतन मिलता है, ना ही चैनल के कर्मचारियों की सुविधाएं हासिल होती हैं। यानी दूसरे शब्दों में इनका काम अंशकालिक संवाददाता या स्वतंत्र पत्रकार- फ्रीलांस जर्नलिस्ट के रूप में समझा जा सकता है, जो चैनलों को खबरें और उनसे जुड़ी सामग्रियां मुहैया कराते हैं। हालांकि तकनीकी तौर पर देखें तो स्ट्रिंगर, अंशकालिक संवाददाता और फ्रीलांस जर्नलिस्ट में फर्क है। अंशकालिक संवाददाता आमतौर पर चैनलों की ओर से अधिकृत होते हैं और उन्हें चैनलों की ओर से पहचान और कुछ सुविधाएं भी मिलती हैं, जबकि फ्रीलांस जर्नलिस्ट पूरी तरह स्वतंत्र रूप से सिर्फ पत्रकारिता करते हैं और तमाम चैनलों और दूसरे मीडिया संगठनों के लिए काम कर सकते हैं। इन दोनों से अलग स्ट्रिंगर संवाददाताओं की उस भीड़ का हिस्सा हैं, जो मूलत: और सैद्धांतिक तौर पर पत्रकार नहीं होते, लेकिन अपने इलाके में पत्रकार के रूप में ही जाने-पहचाने जाते हैं और समाचार के कारोबार में उनकी बड़ी हिस्सेदारी होती है। अंशकालिक संवादादाता भी मूल रूप से पत्रकार नहीं होते और दूसरे पेशों के साथ-साथ शौकिया तौर पर या अतिरिक्त काम के रूप में खबरें जुटाने का काम करते हैं। वहीं, स्ट्रिंगर अक्सर पूर्णकालिक तौर पर खबरें जुटाने के काम में लगे पाए जाते हैं, लेकिन समाचार चैनलों से आमतौर पर उन्हें पत्रकारीय पहचान नहीं मिलती। यहां से स्पष्ट कर देना जरूरी है कि पहचान के तौर पर चैनलों की ओर से उन्हें आईकार्ड और चैनल आईडी दिया जाना चैनलों पर निर्भर करता है और इसका कोई तय मापदंड या निर्धारित नीति नहीं है, ये हर आदमी के काम और उसकी उपयोगिता या समय और परिस्थितियों के मुताबिक सीमित तौर पर अधिकृत किए जाने तक ही है, जिससे उनकी स्थिति संवाददाताओं के बराबर नहीं मानी जाती ।  फर्क काम के बदले मिलनेवाली रकम को लेकर भी है। अंशकालिक संवाददाताओं को जहां महीने में बंधी-बंधाई या एकमुश्त रकम मिल सकती है, वहीं स्ट्रिंगर्स और फ्रीलांसर्स को खबरों की स्टोरी या आइटम के हिसाब से पैसे देने का चलन है। सबसे अहम मुद्दा पहचान का है, चुनिंदा स्ट्रिंगर्स को चैनलों की ओर से माइक आईडी और पहचान मिलती भी है, लेकिन देश में बड़ी संख्या ऐसे स्ट्रिंगर्स की है, जिनके पास किसी चैनल की पहचान नहीं होती, खबरों के संकलन के लिए या रिपोर्टिंग के लिए चैनल की ओर से वास्तविक तौर पर अधिकृत नहीं होते और अपने बल-बूते खबरें और उनसे जुड़ी कच्ची सामग्री जुटाकर और उन्हें बेचकर अपना पेट पालते हैं।
सवाल ये है कि समाचार चैनलों को स्ट्रिंगर्स की जरूरत क्यों है और अगर है तो उन्हें वो पहचान क्यों नहीं मिलती, जिसकी उन्हें दरकार होती है? भारत में हाल के वर्षों में जितनी तेजी से टेलीविजन के समाचार चैनलों का विस्तार हुआ है, उससे ज्यादा तेजी से खबरों का प्रवाह बढ़ा है। इसकी एक वजह तकनीक और प्रौद्योगिकी की आम आदमी तक पहुंच बढ़ने के साथ-साथ खबर जुटाने में इस्तेमाल होनेवाले संसाधनों का सस्ता होना भी है। पहले बात खबरों की- देश के कोने-कोने में खबरें पैदा होती हैं और समाचार चैनलों के लिए उन्हें वीडियो और ऑडियो और तस्वीरों समेत हासिल करना एक बड़ी चुनौती है, बशर्ते उनके संवाददाता चप्पे-चप्पे पर फैले न हों। समाचार चैनलों के लिए हर कस्बे, हर शहर में अपने पूरे खर्च पर संवाददाता नियुक्त करना भी मुनासिब नहीं, क्योंकि हर इलाके से रोज इतनी और ऐसी गुणवत्ता वाली खबरें हासिल हों, जिनका चैनल के दर्शक वर्ग या टार्गेट ऑडिएंस के हिसाब से राष्ट्रीय या क्षेत्रीय महत्व हो। ऐसे में स्ट्रिंगर्स की जमात उन खबरों को इकट्ठा करने और चैनल तक पहुंचाने का इंतजाम करती है, जो चैनल के लिए जरूरी हों, और दिलचस्प हों। लिहाजा स्ट्रिंगर्स की अहमियत बढ़ जाती है। दूसरी बात ये कि संचार माध्यमों इलेक्ट्रॉनिक साधनों औऱ सूचना प्रौद्योगिकी के विकास से वीडियो कैमरे, कैमकॉर्डर जैसी चीजें, जो पहले चुनिंदा लोगों के शौक में शुमार होती थीं, अब काफी सस्ती हो चुकी हैं और कम पैसे में उच्च प्रौद्योगिकी और प्रसारण की क्वालिटी वाले साधन उपलब्ध होने लगे हैं, लिहाजा इनका बढ़-चढ़कर इस्तेमाल news gathering  के लिए होने लगा है और अब तो आलम ये है कि तीसरी आंख यानी कैमरे के फ्रेम से, उसकी जद से कोई भी खबर छूट नहीं सकती। ये काम स्ट्रिंगर्स करते हैं, जो जगह-जगह से खबरें जमा करते हैं और समाचार चैनलों को उपलब्ध कराते हैं। लेकिन उन्हें समाचार चैनलों की ओर से पहचान इसलिए नहीं मिलती क्योंकि वो पूर्णकालिक कर्मचारी के रूप में चैनल में नियुक्त नहीं किए जाते और जरूरत के मुताबिक उनका इस्तेमाल होता है। ऐसे में चैनल की पहचान के दुरुपयोग की आशंका बनी रहती है, जिसका खतरा चैनल नहीं उठाना चाहते।
स्ट्रिंगर्स को समाचार चैनलों से जोड़ने की शुरुआत जिस तरह हुई मानी जाती है, वो news gathering  का एक बेमिसाल तरीका है। पहले पहल देश में आकाशवाणी और फिर दूरदर्शन ने जिला मुख्यालयों, छोटे शहरों और कस्बों में अंशकालिक संवाददाताओं की नियुक्ति शुरु की थी जिसका मकसद समाचार माध्यम के लिए खबरों का नेटवर्क तैयार करना था। इसके लिए ऐसे पढ़े लिखे लोगों, वकीलों, शिक्षकों और समझदार लोगों को अंशकालिक संवाददाता का दर्जा देकर जोड़ा गया था, जिन्हें खबर की समझ हो, हिंदी और अंग्रेजी में खबर लिख सकने और उसे टेलीफोन पर बता सकने की क्षमता और सुविधा हो। पुराने जमाने में न तो इतने चैनल थे, ना ही खबरों पर उतनी पकड़ की जरूरत थी, लिहाजा बड़ी खबरों पर निगाह बनाए रखने के लिए अंशकालिक संवाददाताओं को मामूली रकम या खबरें भेजने का खर्च देकर काम कराया जाता था। हालांकि उनके पास आकाशवाणी-दूरदर्शन की कुछ पहचान होती थी और इसके चलते ऐसे चुनिंदा लोग भी क्षेत्रों में अपनी धाक जमा लेते थे, लेकिन चुंकि खबरों के प्रसारण का स्कोप ज्यादा नहीं था, लिहाजा वो उनका अपने मन मुताबिक इस्तेमाल नहीं कर पाते थे, फायदे नहीं उठा पाते थे, फिर भी समाज में पत्रकार और बुद्धिजीवी के तौर पर लोग उन्हें जानते और पहचानते थे, जिसका उन्हें समय-समय पर फायदा मिलता भी था। लेकिन कुल मिलाकर उनकी पहचान पत्रकार के रूप में शहर और इलाके के गणमान्य व्यक्तित्वों में होती थी और आकाशवाणी का अंशकालिक संवाददाता होना भी गौरव का विषय माना जाता था जिससे तमाम सरकारी महकमों और दफ्तरों से लेकर बडे अफसरान के यहां उनकी सीधी एंट्री होती थी। लेकिन वक्त गुजरने के साथ ही जब समाचार चैनलों की बहुतायत बढ़ी तो छोटे शहरों या जिला मुख्यालयों में ऐसे लोगों की जरूरत पड़ने लगी जिनकी खबरों में दिलचस्पी हो, वो चलता-पुर्जा हों, भागदौड़ कर सकते हों और स्टोरी जुटाकर भेज सकते हों। इस क्रम में तमाम ऐसे लोग चैनलों से जुड़े, जिनके पास अखबारों में लिखने-पढ़ने का थोड़ा-बहुत अनुभव था , और ऐसे लोग भी जुड़ने लगे जिनके समाचार चैनलों में संपर्क थे, मसलन संपादकीय विभाग में काम करनेवालों की जान-पहचान के लोग, केबल टीवी, विज्ञापन, फोटो स्टूडियो और शादी समारोहों की वीडियो कवरेज करनवाले छोटे-बड़े कारोबारी जिनका पत्रकारिता से कभी कोई वास्ता भले ही नहीं था, लेकिन, वीडियो और बाइट का प्रबंध करना उनके लिए किसी पारंपरिक पत्रकार के मुकाबले आसान था। केबल टीवी और विज्ञापन कारोबार से जुड़े लोगों को स्ट्रिंगर बनाने का मकसद किसी न किसी रूप से निजी समाचार चैनलों के कारोबार के हितों से भी जुड़ा हुआ था। इस तरह एक ही साधे सब सधेकी नीति पर स्ट्रिंगर बनाने की परिपाटी चल पड़ी और जब कारोबार जगत के खिलाड़ी इसमें उतरने लगे, तो पत्रकारिता पर फर्क तो पड़ना ही था।
खबरों के कारोबार की गलाकाट प्रतियोगिता में कोई भी समाचार चैनल पिछड़ना नहीं चाहता, लिहाजा स्ट्रिंगर्स उनके लिए बेहद जरूरी या यूं कहें कि रीढ़ के समान हो चुके हैं, जो खबरों के अलावा उनसे जुड़ा सारा कच्चा माल भी इकट्ठा करते हैं। इसके बावजूद व्यावहारिक तौर पर चैनलों में उन्हें वो अहमियत नहीं मिलती, जिसके वो पात्र होते हैं। कारोबारी मानसिकता के तहत उनसे काम लिया जाता है और स्टोरी के हिसाब से भुगतान होता है। कई चैनलों में छोटे-छोटे सुदूर इलाकों के स्ट्रिंगर्स को भुगतान भी वक्त पर नहीं होने की अंदरूनी खबरें आती रहती हैं, जिसका विपरीत असर उनकी परफॉरमेंस पर पड़ता है और वो लोग जो कभी शौक के तौर पर खबरों की दुनिया से स्ट्रिंगर की तरह जुड़े होते हैं, वो धीरे-धीरे उसके कारोबारी बनने लगते हैं। ये स्ट्रिंगरों के पेशे का एक ऐसा स्याह पहलू है, जिसमें पत्रकारिता के उसूलों को ताक पर रख दिया जाता है और खबरों के नाम पर धंधेबाजी शुरु हो जाती है। समाचार चैनलों के लिए स्ट्रिंगर जरूरी हैं, लेकिन जरूरत के मुताबिक ही, लिहाजा कोई भी चैनल ऐसे लोगों को अपनी ओर से पूर्णकालिक रूप से अधिकृत नहीं करना चाहता ताकि उसकी किसी हरकत ये चैनल की साख पर खतरा न पैदा हो। ऐसे में स्ट्रिंगर्स के लिए खबरें जुटाना उनके अपने कौशल, स्थानीय और क्षेत्रीय संपर्कों, अपनी सूझ-बूझ और काफी हद तक अपनी दबंगई पर निर्भर करता है। जो स्ट्रिंगर जिस चैनल के लिए काम करता है, उस पर भले ही खबरों के साथ उसकी बाइलाइन यानी नाम और क्रेडिट न जाए, लेकिन विजुअल मीडिया होने की वजह से , जो स्टोरी, विजुअल और बाइट वो भेजते हैं, उनके प्रसारण से भी उनकी पहचान क्षेत्र में बनने लगती है जिसका फायदा वो अपने लिए उठाते हैं। पेशे का काला पक्ष ये है कि पहचान बन जाने के बाद स्ट्रिंगर्स की क्षेत्रीय दफ्तरों, पुलिस और प्रशासन में पैठ बन जाती है जिसका वो अक्सर फायदा उठाते हैं और इसकी बदौलत उन पर दलाली, कमाई के हथकंडे अपनाने, ब्लैकमेलिंग और दूसरे तमाम आरोप भी अक्सर लगते पाए जाते हैं। पत्रकारीय सिद्धांतों और उसूलों से कोई मतलब न होने की वजह से स्ट्रिंगर खबरों के धंधे में इस कदर उतरते हैं कि कई बार उन पर जबरन खबर बनाने और ऐसे मामलों को भी रोशनी में लाने के आरोप लगते हैं, जिनका खबर से कोई लेना-देना नहीं होता। छोटे-छोटे शहरों और कस्बों में पत्रकारिता के नाम पर डॉन बन कर बैठे कई स्ट्रिंगर चैनल और पेशे को बदनाम करने में जुटे पाए जाते हैं।
हालांकि प्रतियोगिता बढ़ी तो हालात भी बदले और तमाम नए लोग इस पेशे से जुड़े जिनकी वाकई दिलचस्पी पत्रकारिता में थी, लेकिन समाचार चैनलों की स्थिति के हिसाब से ये आसान नहीं रहा। समाचार चैनलों में खर्चों की कटौती होने लगी, राज्यों के समाचार ब्यूरो छोटे हो गए, स्ट्रिंगर्स बढ़ गए, लेकिन, स्टोरीज़ के लिए मिलनेवाली रकम में कमी आने लगी और स्ट्रिंगर्स पर खर्च मैनेज करने का दबाव बढ़ने लगा। ऐसे में सवाल ये है कि स्ट्रिंगर किस तरह काम करें। जिन लोगों के पास और भी साइड बिज़नेस है, या जिनके लिए स्ट्रिंगर का काम करना ही साइड बिज़नेस है, उनके लिए तो परेशानी नहीं, क्योंकि वो चैनल की जरूरत और मांग के मुताबिक स्टोरी कवर करने लगे हैं, लेकिन जो लोग पूर्णकालिक तौर पर सिर्फ इसी काम को अपना पेशा बनाए बैठे हैं, उन्हें योजनाबद्ध तरीके से काम करना पड़ता है। उन पर कम से कम खर्च में ज्यादा से ज्यादा स्टोरीज़ जुटाने की चुनौती होती है।
अब सवाल ये है कि स्ट्रिंगर काम कैसे करते हैं? आमतौर पर हर स्ट्रिंगर 50 से 100 किलोमीटर के दायरे में काम करते हैं, News gathering के लिए वो अपने इलाके के पुलिस-प्रशासन और सरकारी दफ्तरों के संपर्क में रहते हैं, जहां से सरकारी और अपराध से जुड़ी खबरें मिलती हैं। इलाके के सांसद और विधायकों से संपर्क भी खबरें निकालने में काम आता है। इसके अलावा अखबारों और अखबारों के साथी पत्रकारों के माध्यम से उन्हें ऐसी खबरों के बारे में भी जानकारी मिलती है, जिन पर खास स्टोरी की जा सकती और जो जल्द आउटडेटेड नहीं होतीं। ऐसी तमाम खबरों के आइडियाज़ वो संबंधित चैनल को भेजते है, जहां से मंजूरी के बाद उन्हें स्टोरी फाइल करने की तैयारी करनी होती है। इस प्रक्रिया में स्ट्रिंगर्स को ये ख्याल रखना होता है कि वो अगर एक दिन में दो से तीन स्टोरीज़ कवर कर लेते हैं, तो उनका वक्त भी बचेगा और खर्च भी। हालांकि बड़े रेल, बस हादसों, आपदाओं और आपराधिक मामलों से जुड़ी खबरों की स्थिति में उन्हें तत्काल स्पॉट पर पहुंचना होता है और जानकारियां जुटानी पड़ती हैं, ताकि जल्द से जल्द समाचार चैनल को इनपुट दिया जा सके। आम तौर पर बड़े मामलों में उनसे फोन पर जानकारी ली जाती है और फोन वार्ताओं का सीधा प्रसारण भी होता है, जो मौके पर चैनल की उपस्थिति को दर्ज कराता है और पल-पल की जानकारी दर्शकों को हासिल होती है। ऐसी स्थिति के लिए स्ट्रिंगर्स को हमेशा तैयार रहना पड़ता है और वो अगर मीडिया की दुनिया में आगे बढ़ना चाहते हैं, तो ऐसे मौके उनकी प्रतिभा को सामने लाने में काफी फायदेमंद साबित होते हैं। आज कई समाचार चैनलों के बड़े संवाददाता और संपादकीय पदों पर ऐसे लोग बैठे हैं, जिन्होंने अपने पत्रकारीय करियर की शुरुआत स्ट्रिंगर के तौर पर की थी। दरअसल स्ट्रिंगर ही फील्ड के असली रिपोर्टर होते हैं, जो तमाम ऐसे स्रोतों से खबर निकाल सकते हैं, जहां समाचार एजेंसियों और दूसरे माध्यमों की पहुंच नहीं होती। अपने क्षेत्र से पूरी तरह वाकिफ होने के कारण वो क्षेत्र से जुड़ी किसी बड़ी घटना या चुनावी कवरेज के दौरान बारीकी से गहन जानकारियां भी मुहैया करा पाते हैं। इस तरह स्ट्रिंगर का काम अंशकालिक या फ्रीलांस न रहकर पूर्णकालिक होने लगता है। हालांकि कई स्ट्रिंगर ऐसे भी हैं, जिन्होंने तमाम चैनलों से एक साथ अपने संपर्क जोड़ रखे हैं, उनका उत्तरदायित्व किसी एक चैनल के प्रति नहीं होता और वीडियो फुटेज और बाइट वो एजेंसी या फ्रीलांसर के तौर पर सबको बेचकर कमाई कर लेते हैं। शायद ये स्थिति इसीलिए पैदा हुई है क्योंकि एक समाचार चैनल के लिए काम करके उन्हें अपने लिए पर्याप्त कमाई नहीं हो पाती है, या फिर वो ज्यादा से ज्यादा कमाई के लिए ये रास्ता अपनाते हैं। एक समय था, जब हरेक चैनल पर कैमरे के एंगल और फुटेज की शूटिंग क्वालिटी से ये पता लगाया जाता था कि कहीं ये फुटेज किसी और चैनल के पास तो नहीं या किसी और चैनल से चुराई गई तो नहीं। लेकिन अब ये अघोषित तौर पर माना जा चुका है कि सारा माल सबके पास उपलब्ध हो सकता है और सभी एक ही वक्त में अपने अपने स्क्रीन पर चल रही खबर और उनकी फुटेज को एक्सक्लूसिव बता सकते हैं। ऐसा संभवतः स्ट्रिंगर स्रोतों की स्थिति की वजह से ही हुआ है। अब चुंकि खबर में पिछड़ना कोई नहीं चाहता लिहाजा फुटेज इस्तेमाल करने की लालच में क्वालिटी और दूसरे मुद्दों की नुक्ताचीनी का सवाल भी नहीं उठता।
अब बात स्ट्रिंगर के रूप में करियर बनाने की चाहत रखनेवालों के लिए – भारत में समाचार चैनलों का कारोबार अपने संवाददाताओं के बजाय ज्यादातर स्ट्रिंगर्स के जरिए भले ही चल रहा हो, लेकिन स्ट्रिंगर्स प्रोफेशनल नहीं दिखते। सबसे पहले जरूरी ये है कि स्ट्रिंगर का काम करनेवालों में खबरों को पकड़ने की समझ हो और उनकी शूटिंग यानी कैमकॉर्डर के इस्तेमाल और कच्ची स्क्रिप्ट लिखने की क्षमता हो। पत्रकारीय नजरिए से देखें तो जिस किसी चैनल से वो जुड़े हों, उसके टार्गेट ऑडिएंश के हिसाब से खबरों की पहचान भी उन्हें होनी चाहिए। उन्हें स्वतंत्र रूप से काम करने के साथ साथ दूसरे पत्रकारों और संपादकों के संपर्क में भी रहने की आदत होनी चाहिए, ताकि खबरों के बारे में सलाह-मशविरा और विमर्श हो सके और अपनी खबरों को उनके सामने रखने, उन्हें बेचने की क्षमता भी उनमें होनी चाहिए। जिला मुख्यालयों, शहरों या कस्बों में काम करनेवाले स्ट्रिंगर्स से ये उम्मीद भी की जाती है कि वो इंटरनेट और कंप्यूटर के इस्तेमाल की जानकारी रखते हों, ताकि खबरों की स्क्रिप्ट और फीड आसानी से चैनल को भेज सकें। इसके लिए उन्हें अपने घर पर ही एक छोटा दफ्तर जरूर बना लेना चाहिए, जहां फोन, फैक्स और इंटरनेट की सुविधा हो, ताकि वो खबरों को चैनल तक भेजने का काम पूरा कर सकें। हालांकि फील्ड के स्ट्रिंगर आजकल गली मुहल्लों में मौजूद सायबर कैफे के जरिए भी इस काम को अंजाम दे डालते हैं। लेकिन कुछ बड़े स्तर पर और पेशेवर तरीके से काम करने के लिए एक दफ्तर का सेट-अप होना जरूरी है। अगर आप लंबे समय से स्ट्रिंगर का काम कर रहे हैं या स्ट्रिंगर बने रहना चाहते हैं तो आपके पास उन तमाम स्टोरीज़ के वीडियो टेप की लायब्रेरी होनी चाहिए, जो आप शूट कर चुके हों, ताकि उसका रिकॉर्ड रहे और भविष्य में भी उनका इस्तेमाल हो सके। कई बार कई दुर्लभ किस्म की फुटेज की अच्छी कीमत आपको मालामाल कर सकती है। आमतौर पर स्टोरी शूट करने में भी सावधानी बरतनी चाहिये कि वीडियो टेप बर्बाद न हों और उतनी ही फुटेज शूट की जाए, जितने की दरकार स्टोरी को हो सकती है। ये काम अभ्यास की बदौलत ही आता है, शुरुआत में बर्बादी तो लाजिमी है। खबरों पर आपकी नज़र होनी चाहिए और आइडियाज़ की तैयारी होनी चाहिए, जिन्हें आप चैनल के प्रभारियों के सामने समय-समय पर पेश कर सकें और अपना काम जारी रख सकें। स्टोरी का फोकस साफ होना चाहिए और उसमें चैनल की दिलचस्पी बने, इसके लिए उसकी संक्षिप्त रूप रेखा, बजट और शूटिंग में लगनेवाले वक्त की जानकारी जरूरत के मुताबिक देनी होगी। एक स्टोरी पर काम खत्म हो, इससे पहले अगली स्टोरी मंजूर हो चुकी हो, इसके लिए आपको लगातार चैनल के अधिकारियों के संपर्क में रहना पड़ेगा और आपके पास स्टोरीज़ के आइडिया आते रहें इसके लिए जरूरी ये है कि अपने क्षेत्र में आपके संपर्क मजबूत हों, संबंधित स्रोतों में आपकी जान-पहचान जबर्दस्त हो, और हर जगह लोग आपको जानते हों, ताकि कहीं भी कोई घटना हो, तो लोग सबसे पहले आपको खबर देने के लिए संपर्क करें। साथ ही खबर से जुडे लोगों को भी पकड़ने में आपको मशक्कत न करनी पड़े। ऐसी स्थिति में आपको सातों दिन चौबीसों घंटे खबर के लिए अपनी उपलब्धता बनाए रखनी होगी, अगर आप किसी और काम में या कारोबार में व्यस्त हों, तो खबर छूट सकती है या छोड़नी पड़ सकती है। खबरों का आपका कारोबार चलता रहे, उसमें कोई व्यवधान न आए, इसके लिए जरूरी ये है कि आप दूसरे चैनलों और दूसरे माध्यमों के भी संपर्क में रहें, ताकि आपकी हर स्टोरी कहीं न कहीं इस्तेमाल हो जाए। अगर आपमें पत्रकारीय गुण हैं, खबरों की समझ है काम करने का जोश और जज्बा है और तगड़े संपर्क हैं, तो स्ट्रिंगर होते हुए आपको किसी चैनल की पहचान की जरूरत नहीं होगी और आपको पत्रकार के रूप में ही जाना पहचाना जाएगा। दरकार इस बात की भी है कि खबरों की दुनिया में रहते हुए आप पत्रकारिता के मूल्यों को समझें और उसके प्रतिमानों को बरकरार रखें, न कि उसे निहित स्वार्थों और कमाई का साधन बनाकर काम करें। तभी आप अपने काम और पेशे के साथ न्याय कर सकेंगे।
-कुमार कौस्तुभ
23.04.2013, 5.45 PM

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