गुरुवार, 25 अप्रैल 2013

संपादक- सामर्थ्य और सीमा




                संपादक अब मीडिया संस्थानों में मजह एक पदनाम नहीं रहा, वरन ये एक पूरी व्यवस्था को इंगित करता है। आमतौर पर संपादक से मतलब उस व्यक्ति से होता है, जो अखबार, रेडियो या टेलीविजन पर पेश और प्रसारित किए जानेवाले कंटेट के लिए जिम्मेदार हो। संपादकी के काम की मूल भावना यही है, लेकिन आधुनिक दौर में संपादकों की जिम्मेदारियां काफी बढ़ गई हैं, लिहाजा कार्यक्षेत्र का विस्तार हो गया है और इसी क्रम में इस पदनाम से जुड़े और इसके कई और पर्यायवाची पदनाम पैदा हो गए हैं। संपादक किसी मीडिया संस्थान में मालिक य़ा प्रमोटर की हैसियत वाला व्यक्ति हो सकता है या फिर मालिक या प्रमोटर के बाद दूसरे या तीसरे नंबर पर उसकी हैसियत होती है। आजकल मीडिया संगठनों का कॉरपोरेटीकरण हो चुका है, लिहाजा मालिक के बाद चीफ एग्जेक्यूटिव ऑफिसर और चीफ ऑपरेटिंग ऑफिसर जैसे पद भी होते हैं, जिनकी जिम्मेदारी संगठन का प्रबंधन देखना होती है। लेकिन चैनल या अखबार या किसी और समाचार संगठन में प्रसारित होनेवाले कंटेट का जिम्मा संपादक कहलानेवाले व्यक्ति पर ही होता है।
बहरहाल बात संपादक की सामर्थ्य और सीमा की हो रही है, तो सबसे पहले ये साफ कर देना जरूरी है कि यहां चर्चा उन संपादकों की हो रही है, जिन पर समाचार चैनलों को चलाने का उत्तरदायित्व होता है यानी मैनेजिंग एडिटर, एग्जेक्यूटिव एडिटर, सीनियर एडिटर और एडिटर या फिर सीनियर एग्जेक्यूटिव प्रोड्यूसर, एग्जेक्यूटिव प्रोड्यूसर जैसे पदनामों वाले लोग जो चैनल के कंटेंट और प्रबंधन का काम देखते हैं। किसी एक समाचार चैनल के प्रमुख या कई चैनलों के प्रमुख के तौर पर मैनेजिंग एडिटर या एडिटर इन चीफ सबसे वरिष्ठ व्यक्ति होते हैं, जरूरी नहीं कि वो उम्रदराज भी हों, लेकिन चैनल के सभी विभागों की कमान संभालते हैं और उनका काम संपादकीय और प्रसारण से जुड़ी संगठन की नीतियां तय करना है और ये ध्यान रखना है कि नियामक संगठनों और प्रसारण मंत्रालय के दिशानिर्देशों का पालन हो रहा है या नहीं। साथ ही वो ये भी तय करते हैं कि किस चैनल का क्या स्वरूप होगा, उसका लक्ष्य क्या होगा, उनका बजट क्या होगा और किस तरह से चैनल के जरिए रेवेन्यू आएगा ये CEO और मार्केटिंग विभागों के साथ मिलकर उन्हें तय करना होता है। ये काफी चुनौतीपूर्ण स्थिति है और इसके लिए संपादकीय प्रमुख को सालभर चैनल पर चौबीसों घंटे और सातों दिन होनेवाले प्रसारण पर ध्यान और उसका लेखा जोखा रखना पड़ता है। इस काम से जुड़ी जिम्मेदारियां आमतौर पर दूसरी कड़ी के तौर पर एडिटर, आउटपुट एडिटर और एग्जेक्यूटिव एडिटर पदनाम वाले लोंगों देने की व्यवस्था है, जिनका का काम कंटेंट पर नजर रखना और उसका प्रबंध करना है।  मैनेजिंग एडिटर अपने सहयोगियों और तमाम चैनलों के प्रमुखों प्रभारियों से सलाह मशविरे के बाद चैनलों की FPC  क्या होगी इसको मंजूरी देते हैं और प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से ये तय करते हैं कि किस चैनल की प्राथमिकता क्या होगी। जिन मीडिया संस्थानों में एक साथ कई चैनल नहीं चल रहे, सिर्फ एक समाचार चैनल हों, वहां भी संपादकीय प्रमुख की कुर्सी पर बैठे शख्स की मिलती-जुलती महती जिम्मेदारियां होती है। इस लिहाज से संपादकों की सामर्थ्य का अंदाजा लगाना मुश्किल है क्योंकि वो किस खबर को कितनी अहमियत देना पसंद करेंगे और उसका क्या असर होगा, ये देखनेवाली बात होती है। चैनल का कारोबार उन्ही की रणनीतियों के मुताबिक चलता है लिहाजा चैनल के उत्थान और पतन के जिम्मेदार भी वही माने जाते हैं। ऐसे में मैनेजिंग एडिटर या एग्जेक्यूटिव एडिटर, सीनियर एडिटर और एडिटर या फिर सीनियर एग्जेक्यूटिव प्रोड्यूसर या एग्जेक्यूटिव प्रोड्यूसर किसी भी समाचार चैनल में मालिक के बाद सबसे ताकतवर शख्सियत होते हैं, जिन पर चैनल को सुचारू रूप से और फायदे में चलाने का जिम्मा होता है। अपनी जिम्मेदारी निभाने के लिए अपनी ताकत का इस्तेमाल करने के लिए वो स्वतंत्र होते हैं, मसलन चैनल के लिए महत्वाकांक्षी बजट वाली योजनाएं बनाने, चैनल के लुक को तय करने और कर्मचारियों की नियुक्ति से लेकर उन्हें हटाने तक के तमाम मामलों में उन्हें अपनी शक्ति के इस्तेमाल का मौका मिलता है। संपादकीय प्रमुखों पर ही अप्रत्यक्ष या प्रत्यक्ष तौर पर ये जिम्मेदारी भी होती है कि वो अपने संगठन को चलाने में किस कर्मचारी  का कहां इस्तेमाल करें। ऐसे में उनकी पारखी नजरें किसी शख्स को उसकी क्षमता के मुताबिक, चैनल का सितारा बना सकती हैं, तो किसी को ऐसी जगह बिठा सकती हैं, जहां उसके लिए करने को कुछ भी सार्थक नहीं हो। अपने सहयोगियों और वर्क फोर्स की सैलरी और सालाना प्रमोशन और इंक्रीमेंट तय करना भी संपादकीय प्रमुखों की भी जिम्मेदारी होती है, ऐसे में उन्हें इस दुविधा की स्थिति से गुजरना पड़ता है कि किसी के साथ अन्याय तो नहीं हो रहा है। वैसे सुलझे हुए संपादक ऐसी पारदर्शी व्यवस्था बनाते हैं, जिसमें हरेक कर्मचारी को अपना पूरा आउटपुट पेश करने का मौका मिलता है और उसी के आधार पर उसका प्रमोशन और इंक्रीमेंट तय होता है। ये बातें संपादकीय प्रमुख की सामर्थ्य को जाहिर करती हैं जिसके जरिए वो चैनल को चला सकता है।
सवाल है कि संपादकीय प्रमुख के पास जब इतनी बड़ी जिम्मेदारियां होती है, तो उससे क्या अपेक्षा की जाती है, उस कुर्सी पर बैठनेवाले व्यक्ति के पास क्या क्वालिटी होनी चाहिए। आजकल भारतीय समाचार चैनलों की स्थिति को देखते हुए कहा जा सकता है कि जिस व्यक्ति के पास खबरों की बेहतरीन समझ और उनके प्रबंधन की क्षमता हो, जिसे इन बातों का अंदाजा हो कि किस वक्त कौन सी खबर को अहमियत देना चैनल के फायदे में होगा और किस खबर का ट्रीटमेंट किस तरह से होना चाहिए, किस खबर के साथ कितना खेला जा सकता है, वो व्यक्ति सफल संपादकीय प्रमुख हो सकता है। हालांकि समाचार चैनल टीम वर्क है, सैकड़ों की संख्या में कर्मचारी चैनल में काम करते हैं, ऐसे में संपादकीय प्रमुख में सहज तौर पर नेतृत्व और फैसले लेने की क्षमता होनी चाहिए, ताकि वो खबरों के साथ-साथ टीम लीडर के रूप में कर्मचारियों की व्यवस्था से जुड़े मामले भी सुलझा सके। उनके कल्याण का भी ख्याल रख सके और उनसे किस तरह काम लेना है, ये भी उसे अच्छी तरह पता हो। संपादकीय प्रमुख चैनल का चेहरा भी हो सकता है, जरूरी नहीं कि वो पर्दे के पीछे ही रहकर काम करे, ऐसे में जरूरी है कि उसमें लाइव प्रसारण के दौरान खबरों के विश्लेषण, कार्यक्रमों के मॉडरेशन और एंकरिंग की शानदार क्षमता हो। ऐसे कई लोग मौजूदा समाचार चैनलों में प्रमुख की कुर्सी पर बैठे हैं, जो अपने शुरुआती दौर में समाचार चैनलों के बेहतरीन रिपोर्टर और एंकर रहे हैं। भारतीय समाचार चैनलों के मुखियाओं के रूप में डॉ. प्रणय रॉय, राघव बहल, राजदीप सरदेसाई, अर्णब गोस्वामी, संजय पुगलिया, आशुतोष, विनोद कापड़ी, दीपक चौरसिया, पूनम शर्मा, सतीश के. सिंह, सुधीर चौधरी, संजीव श्रीवास्तव, उपेंद्र रॉय, रवीश कुमार, निशांत चतुर्वेदी, कुमार राजेश , अतुल अग्रवाल, अभिरंजन कुमार ऐसे कई नाम हैं जो चैनलों की संपादकीय व्यवस्था से जुड़ने से पहले भी समाचार चैनलों पर अपनी प्रतिभा का लोहा मनवा चुके हैं। जाहिर है, अपनी ब्रैंडिंग के जरिए भी कई शख्सियतों को अपने समाचार चैनलों को दर्शकों के सामने पेश करने में काफी सुविधा हुई। इसके बाद अपनी संपादकीय क्षमता की बदौलत इन्होंने अपने चैनलों को कामयाबी की बुलंदियों तक पहुंचाने की कोशिश की।
यहां एक और बात ध्यान देने की है वो ये कि अपनी क्षमता का बेहतरीन इस्तेमाल करके कोई शख्स समाचार चैनल को चलाने में कामयाब हो सकता है, लेकिन उसकी राह इतनी आसान नहीं होती। ताकतवर होते हुए भी संपादकों को कामकाज में कई बाधाओं से गुजरना पड़ता है, कई तरह की सीमाएं उनके कार्यक्षेत्र में होती हैं, जिनका ध्यान रखना पड़ता है। एक कहावत है- अकेला चना भांड़ नहीं फोड़ता और महान रूसी लेखक दोस्तोएव्सकी ने अपने उपन्यास अपराध और दंड में एक और बात कही है, जिसको साबित करने की कोशिश उनका हीरो रस्कोल्निकोव करता है- दुनिया में दो तरह के ही लोग होते हैं, एक वो जो अगुवाई करते हैं, दूसरे वो जो पीछे-पीछे चलते हैं। रस्कोल्निकोव तो अपनी क्षमता आंकने की कोशिश में द्वंद्व का शिकार हो गया। लेकिन अकेले चनेऔर आगे-आगे चलनेवाले चुनिंदा लोगोंसे जुड़ी दोनों ही बातें समाचार चैनलों में बड़े साफ तौर पर दिखती हैं। समाचार चैनल चलाना एक व्यक्ति के हाथ का खेल नहीं, उसे उस टीम पर निर्भर रहना पड़ता है, जिसमें हर तरह के लोग होते हैं, कुछ अनुभवी, कुछ नए, कुछ कुशल, कुछ बेवकूफ, कुछ मेहनती, कुछ कामचोर- और इन हर तरह के लोगों से बेहतरीन आउटपुट हासिल करना संपादकीय प्रमुख के लिए बड़ी चुनौती है। यही उसकी सीमा है, जिसमें रहते हुए साम-दाम-दंड-भेद की नीति अपनाते हुए वो अपना काम करता है। चुंकि एक अकेला संपादकीय प्रमुख चौबीसों घंटे होनेवाले प्रसारण पर हमेशा खुद नजर नहीं रख सकता, ये व्यावहारिक तौर पर असंभव है, ऐसे में वो अपने साथ काम करनेवाले भरोसेमंद लोगों की टीम तैयार करता है, जो उसके बाद दूसरे और तीसरे स्तर पर कामकाज सुचारू रूप से और जिम्मेदार तरीके से चला सकें। ऐसे में संपादकीय प्रमुख की कुछ जिम्मेदारियां दूसरे सहयोगियों पर भी आ जाती हैं और वो भी बराबर के जवाबदेह हो जाते हैं। समाचार चैनलों में होनेवाली नियुक्तियों में अक्सर इस बात की झलक मिलती है कि वही लोग काम के लिए रखे जाते हैं, जिनकी पहले से या तो मार्केट में साख बनी हो, या फिर संपादकीय विभाग के लोग निजी तौर पर उनकी क्षमताओं के बारे में जानते हों। समाचार चैनलों में नौकरी के लिए अखबारों में विज्ञापन देकर और बायो डेटा के आधार पर छंटनी के बाद स्क्रीनिंग टेस्ट लेने की परंपरा ज्यादातर कागजी, दस्तावेजी और दिखावा भर होती है, नियुक्तियां तो आमतौर पर अनौपचारिक जानकारियों के आधार पर ही होती हैं क्योंकि कोई भी संपादकीय प्रमुख किसी अनजान शख्स से काम कराने का जोखिम तब तक नहीं लेना चाहता, जब तक वो किसी न किसी तरीके से उसके कामकाज के बारे में आश्वस्त हो। ऐसे में सीधी बातचीत के साथ-साथ सिफारिशों और Recommendations के जरिए चैनलों में नौकरियां मिलना आम बात हो चुकी है। इसीलिए अक्सर ऐसा देखा जाता है कि अगर कोई शख्स किसी समाचार चैनल में संपादकीय प्रमुख की हैसियत में नियुक्त होता है, तो वो अपने पुराने संस्थानों के भरोसेमंद सहयोगियों को भी अपने साथ ले जाकर अपनी टीम तैयार करने की कोशिश करता है। रोजगार की ये स्थिति प्राइवेट कॉरपोर्ट सेक्टर में कामकाज के उस मॉडल पर ही आधारित है जिसके तहत कंपनी के प्रमुख अधिकारियों और टीम लीडर्स पर कंपनी का टार्गेट पूरा करने की जिम्मेदारी होती है और इसके लिए उसे अपनी पसंद के लोग चुनने की छूट होती है। ये स्थिति एक तरह से ठीक भी है, लेकिन नौकरी तलाशनेवाले आम लोगों के लिए बेहद कठिन, क्योंकि उनके लिए किसी बनी-बनाई टीम से अनाजान की हैसियत से जुड़ना संभव नहीं होता, क्योंकि उन्हें टीम का कोई खिलाड़ी जानता नहीं। ऐसे में आप अगर समाचार चैनल में काम करना चाहते हैं और किसी वरिष्ठ संपादकीय व्यक्ति से आपकी नजदीकी नहीं है, तो अगर किसी चैनल से इंटरव्यू का बुलावा आ भी जाए, तो आपके लिए सामने बैठे संपादकीय प्रमुख और अपनी क्षमता और योग्यता का भरोसा दिलाना आसान नहीं, आप यदि डींगें हांककर इंटरव्यू में अपनी छवि बना लेते हैं औऱ काम पा भी लेते हैं, तो आगे संपादक की कसौटी पर खरा उतरने के लिए परफॉर्म करना बड़ी चुनौती है, क्योंकि शीशमहल जैसा समाचार चैनल बाहर से जितना चमकदार और साफ-सुथरा दिखता है, उसके मुकाबले अंदर कांटों भरी कारपेट आपका स्वागत करने को तैयार रही है और संपादकों का भरोसा जीतने के लिए रोज चुभनेवाली कुर्सियों पर अपनी जगह बना पाना आपके लिए कोई खेल नहीं हो सकता। भरोसे और जिम्मेदारी का ये समीकरण टॉप लेवल पर भी होता है क्योंकि संपादकीय प्रमुख सीधे मालिक के प्रति और नियम कानूनों के प्रति जवाबदेह होते है, उन्हें चैनल के लाभ और घाटे का हिसाब देखना पड़ता है। ऐसे में जो कड़ी बनती है उसमें संपादकीय प्रमुख के प्रति उसके कनिष्ठ सहयोगी जवाबदेह होते हैं जिससे कुछ बेहतरीन प्रसारित होने पर उन्हें बॉस की तारीफ मिलती है, तो कुछ गलत जाने पर फटकार भी और नौकरी जाने का खतरा भी रहता है, क्योंकि जवाबदेही की ये कड़ी संपादकीय प्रमुख से जुड़ी रहती है जिससे चैनल पर प्रसारित होनेवाली गलतियों और खराब परफॉरमेंस के चलते उसे अपनी नौकरी भी गंवानी पड़ सकती है। ऐसे में अपनी नौकरी को ताक पर रखकर वो दूसरे सहयोगियों की गलतियां कैसे बर्दाश्त कर सकता है। दूसरी सीमा है खबरों और प्रसारण से जुड़ी हुई। तमाम कानूनों, नियम-कायदों, उसूलों और नैतिकता के दायरे में खबरों का प्रसारण करना होता है। ऐसे में संपादकीय प्रमुख को तय नीतियों और कुछ ‘Set of rules’ के आधार पर काम करना पड़ता है यानी कौन सी खबर प्रसारित होनी चाहिए या नहीं और किस रूप में, ये पहले तय हो। दर्शकों को अपने चैनल की ओर आकर्षित करने के लिए वो किसी ऐसे विजुअल या स्टोरी के प्रसारण की इजाजत नहीं दे सकता, जिससे सनसनी फैले, या अफवाह फैले या फिर जिसका प्रसारण उत्तेजना भड़काए। भले ही निजी तौर पर किसी को कोई चीज पसंद आ सकती है, लेकिन उसका सार्वजनिक प्रसारण सार्वजिनक असर को देखते हुए ही किया जा सकता है या नहीं किया जा सकता – खबर का क्या असर होगा- संपादकीय प्रमुख को इस सीमा में रहकर ही फैसले लेने पड़ते हैं। एक और बड़ी सीमा है समाचार चैनलों के सालाना बजट की। कॉरपोरेट क्षेत्र की हर कंपनी की तरह चैनलों को भी बजट के हिसाब से काम करना होता है, रेवेन्यू जेनरेट करने और खर्चों में कटौती का लक्ष्य होता है। ऐसे में संपादकीय प्रमुख की कोशिश ये होती है कि वो कम से कम मैन पॉवर में ज्यादा से ज्यादा आउटपुट हासिल करे, पैसे उन्हीं प्रोजेक्ट्स में लगाए जाएं, जिनसे अच्छे मुनाफे की संभावना हो, संवाददाताओं के गैर-जरूरी दौरों और विदेश दौरों को प्रोत्साहन न दिया जाए, सैलरी और इंक्रीमेंट की स्थिति संतुलित रखी जाए, ताकि चैनल के बजट पर बोझ न बढ़े। हालांकि संपादकीय प्रमुखों के असीमित विशेषाधिकार होते हैं, जिन्हें वो चैनल की भलाई के लिए इस्तेमाल कर सकते हैं, लेकिन उसके साथ तब तक जुड़ा होता है जवाबदेही का भी मामला जब तक संपादकीय प्रमुख खुद चैनल के मालिक नहीं होते। अगर मालिक ही संपादकीय प्रमुख भी होते हैं, तो उन्हें भी उन तमाम मुद्दों पर गौर करना पड़ता है जिनकी चर्चा ऊपर की जा चुकी है क्योंकि समाचार चैनलों का संचालन आज के दौर में शुद्ध रूप से कारोबार है जिसे चलाने के लिए मुनाफे और घाटे का हिसाब रखना सबसे ज्यादा जरूरी होता है। संपादकीय प्रमुखों की कुछ नैतिक सीमाएं भी होती हैं जिनका ध्यान कर्मचारियों के साथ बर्ताव और उनसे संबंधों के मामले में रखना पड़ता है। कर्मचारियों से मानवाधिकारों और नियम कानूनों के दायरे में ही काम लेने की व्यवस्था है, ऐसे में उनके प्रबंधन, कामकाज और कल्याण के दायरे निर्धारित होने चाहिए। साथ ही, कर्मचारियों  के साथ संपादकीय प्रमुखों के संबंध भी पेशेवर होने चहिए, भले ही उनकी आपसी रिश्तेदारी भी हो, क्योंकि मामला आखिरकार जिम्मेदारी से जुड़ा है और कारोबार की जिम्मेदारी घर परिवार से अलग हटकर सबसे अहम होती है।
अनुभव, आवश्यकता और व्यवस्था के मुताबिक समाचार चैनलों और संगठनों में एकाधिक संपादक होते हैं और संपादकों की hierarchy भी बनाई जाती है, इसी लिहाज से पदनाम में कई और विशेषण जुड़ जाते हैं, या फिर उनमें कुछ शब्दों का हेर-फेर हो जाता है। मसलन
एडिटर इन चीफ- ये संगठन के मालिक के स्तर का व्यक्ति होता है, यानी संपूर्ण कर्ता-धर्ता
मैनेजिंग एडिटर- हैसियत मालिक की नहीं, लेकिन व्यावहारिक तौर पर चैनल के कामकाज की महती जिम्मेदारी, सभी विभागों का मुखिया
चीफ एडिटर- मैनेजिंग एडिटर जैसा ही पद, अनुभव और संगठन की आवश्यकता के आधार पर पदनाम का सृजन
एग्जेक्यूटिव एडिटर- कंटेंट प्रबंधन के लिए जिम्मेदार, मैनेजिंग एडिटर जैसा ही पद, अनुभव और संगठन की आवश्यकता के आधार पर पदनाम का सृजन
एडिटर- कंटेंट प्रबंधन के लिए जिम्मेदार, कंटेंट और प्रबंधन से जुड़ी जिम्मेदारियां संभालते हैं
सीनियर एडिटर- कंटेंट प्रबंधन के लिए जिम्मेदार, कंटेंट से ही जुड़ी जिम्मेदारियां संभालते हैं, न्यूज़ डेस्क, एसाइनमेंट के कामकाज तक सीमित भूमिका
आउटपुट एडिटर- न्यूज़ डेस्क और समाचार चैनल के प्रसारण से जुड़े रोजाना के कामकाज के लिए जिम्मेदार
इनपुट एडिटर- समाचार चैनलों में समाचार प्रवाह और उनके प्रबंधन, मसलन रिपोर्टिंग, ब्यूरो, एसाइनमेंट की जिम्मेदारी
एसोसिएट एडिटर- न्यूज़ डेस्क पर रोजाना के कामकाज देखने की जिम्मेदारी, वरिष्ठों के सहयोग की जिम्मेदारी, समाचार चैनल के बुलेटिन्स की जिम्मेदारी, किसी खास कार्यक्रम के प्रभारी हो सकते हैं
एसिस्टेंट एडिटर- समाचार चैनल के बुलेटिन्स की जिम्मेदारी, किसी खास कार्यक्रम के प्रभारी हो सकते हैं
मेट्रो एडिटर- मेट्रो और बड़े शहरों से से जुड़े मामलों पर आधारित समाचारों और कंटेंट का प्रबंधन
पॉलिटिकल एडिटर- सीनियर पॉलिटिकल रिपोर्टर, राजनीतिक मामलों पर आधारित समाचारों और कंटेंट का विश्लेषण और प्रबंधन
क्राइम एडिटर- अपराध जगत की खबरों पर कंटेंट का प्रबंधन
स्पोर्ट्स एडिटर- खेलों की खबरों और उनके कार्यक्रम की जिम्मेदारी
एंटरटेनमेंट एडिटर- सिनेमा और मनोरंजन की खबरों और कार्यक्रम की जिम्मेदारी
अखबारों में रेजिडेंट एडिटर के पद भी होते हैं, जो PIB नियमों के तहत रोजाना छपनेवाली खबरों के लिए जिम्मेदार होते हैं। समाचार चैनलों में ये जिम्मेदारी, एडिटर, सीनियर एडिटर, आउटपुट एडिटर की हो सकती है।
      टेलीविजन के समाचार चैनल चुंकि ऑडियो-विजुअल मीडिया हैं, लिहाजा यहां काम करनेवालों के पदनाम पर फिल्म निर्माण की व्यवस्था का भी असर देखने को मिलता है। ऐसे में संपादकीय कामकाज और जिम्मेदारियों से जुड़े लोगों के पदनाम में एडिटर या संपादक की जगह आमतौर पर प्रोड्यूसर भी जुड़ा हुआ दिखता है। लेकिन जिम्मेदारियां लगभग बराबर होती हैं। सैद्धांतिक तौर पर ये माना जाता है कि प्रोड्यूसर पदनाम संभालनेवाले लोग समाचार चैनलों के प्रसारण से जुड़े तकनीकी पक्ष को भी जानते और समझते हों, सिर्फ खबरों के प्रबंधन और उनकी स्क्रिप्टिंग तक उनकी जिम्मेदारी सीमित न हो। इस तरह ऊपर से नीचे तक प्रोड्यूसर की पूंछ वाले तमाम पदनाम समाचार चैनलों में दिख जाएंगे। मसलन-
सीनियर एग्जेक्यूटिव प्रोड्यूसर- मैनेजिंग एडिटर के समकक्ष या थोड़ी कम अहमियत
एग्जेक्यूटिव प्रोड्यूसर- ये एग्जेक्यूटिव एडिटर, आउटपुट एडिटर, इनपुट एडिटर के समकक्ष होते हैं, कार्यक्रमों के कंसेप्ट तय करने से जुड़ी जिम्मेदारी प्रमुख मानी जाती है
डिप्टी एग्जेक्यूटिव प्रोड्यूसर/ न्यूज़रूम इंचार्ज- एडिटर, सीनियर एडिटर के समकक्ष, समाचार चैनलों के कंटेंट और प्रबंधन की जिम्मेदारी, अलग-अलड डेस्क, बिजनेस, स्पोर्ट्स, एंटरटेनमेंट वगैरह की जिम्मेदारी स्वतंत्र रूप से संभाल सकते हैं
एसोसिएट एग्जेक्यूटिव प्रोड्यूसर, सीनियर प्रोड्यूसर- न्यूज़ डेस्क, एसाइनमेंट डेस्क के प्रभारी, रोजाना के कामकाज और प्रबंधन की जिम्मेदारी, शिफ्टों का प्रभार संभाल सकते हैं
एसोसिएट सीनियर प्रोड्यूसर/ प्रोड्यूसर- खबरों की स्क्रिप्टिंग, पैकेजिंग, रनडाउन, टिकर, बुलेटिनों, समाचार आधारित कार्यक्रमों के निर्माण और प्रसारण की जिम्मेदारी, एसोसिएट एग्जेक्यूटिव प्रोड्यूसर, सीनियर प्रोड्यूसर और दूसरे वरिष्ठों का सहयोग
एसोसिएट प्रोड्यूसर/ एसिस्टेंट प्रोड्यूसर- खबरों की स्क्रिप्टिंग, पैकेजिंग, रनडाउन, टिकर, बुलेटिनों, समाचार आधारित कार्यक्रमों के निर्माण और प्रसारण की जिम्मेदारी, एसोसिएट एग्जेक्यूटिव प्रोड्यूसर, सीनियर प्रोड्यूसर और दूसरे वरिष्ठों का सहयोग
प्रोडक्शन एग्जेक्यूटिव/ ट्रेनी- खबरों की स्क्रिप्टिंग, पैकेजिंग, रनडाउन, टिकर पर सहयोग की जिम्मेदारी, जिनके जरिए वो समाचार चैनलों का काम सीख सकें।
संपादकीय जिम्मेदारी देखनेवालों के कुछ और भी उच्च पद हैं, जैसे को-ऑर्डिनेटिंग एडियर, ग्रुप एडिटर, कंसल्टिंग एडिटर, एडिटर एट लार्ज, कंट्रिब्यूटिंग एडिटर, जो ऐसे बड़े मीडिया संस्थानों में होते हैं, जहां कई चैनल, अखबार, मैगजीन और ऑनलाइन जैसी तमाम संपादकीय व्यवस्थाएं एक साथ काम कर रही हों। किसी एक समाचार चैनल में इस तरह के पद आमतौर पर नहीं होते, और होते भी हैं, तो ये कामकाज की विविधता पर निर्भर करता है कि किस व्यक्ति को ऐसे पद पर क्यों रखा गया है और उसकी असल जिम्मेदारी क्या है।
      एडिटर या प्रोड्यूसर दोनों ही तरह के पदनामों पर काम करनेवाले लोग समाचार चैनलों के खबरों से जुड़े रोजाना के कामकाज से इत्तेफाक रखते हैं। आम समझदारी के हिसाब से एडिटर कहलाने वालों को तकनीकी पक्ष से अलग –खांटी तौर पर खबरों का काम करनेवाला, लेखन और रिपोर्टिंग से जुड़ा माना जाता है, वहीं प्रोड्यूसर पदनाम वाले कर्मचारी बुलेटिनों और समाचार आधारित करंट अफेयर्स के कार्यक्रमों के आइडिया निकालने से लेकर उनके प्रसारण तक- तकनीकी पहलुओं की भी समझदारी रखने के लिए पूरी तरह से जिम्मेदार माने जाते हैं। यानी एक तरफ खबरिया नजरिया प्रमुख है, तो दूसरी तरफ प्रबंधन और तकनीकी पक्ष। दोनों ही तरह के पदनामों के व्यावहारिक कामकाज में ये बड़ा झीना सा फर्क है क्योंकि समाचार चैनलों में दोनों ही तरह के पदनामों वाले लोग हर तरह के काम करते नजर आते हैं और पदनाम से निरपेक्ष उन्हें जो भी जिम्मेदारी सौंपी जाती है उसे वो निभाते हैं। ऐसे में ये समझना होता कि पदनामों का ये फर्क देश में अखबारी पत्रकारिता और टेलीविजन के विस्तार की देन है। शुरुआती दौर में टेलीविजन के समाचार चैनलों में ऐसे लोगों की एंट्री हुई जो अखबारों में काम कर चुके थे और उनके लिए संपादन से जुड़ा पदनाम पत्रकारीय समझ और कामकाज के नजरिए से गौरवपूर्ण था, ऐसे में उन्हें इस तरह के पदनाम दिए गए, जिनमें एडिटरकी पूंछ जुड़ी हो। वहीं ऐसे लोग भी थे, जो FTII जैसे संस्थानों से ट्रेनिंग लेकर आए और चैनलों के तकनीकी पहलुओं में सिद्धहस्त थे, लेकिन खबरों की प्रसारण में उनकी खास दखल थी। ऐसे लोग प्रोड्यूसर से जुड़ी पदवी पाने लगे। समाचार चैनलों में आनेवाले नए मैनपॉवर को भी खबरों यानी रिपोर्टिंग और न्यूज़ डेस्क के हिसाब से बांटा गया और इसी तरह से उनके पदनामों का भी निर्धारण शुरु हुआ। कुल मिलाकर आज व्यावहारिक स्थिति ये है कि आम एसोसिएट एडिटर हों, या प्रोड्यूसर- काम आपको एक ही तरह का करना पड़ सकता है और आप अपने पद का हवाला देकर उससे इंकार तो कर ही नहीं सकते।
       संपाकदीय प्रमुखों के पास बड़ी जिम्मेदारियां होती हैं, लिहाजा वो छोटी, लेकिन Blunder कहलानेवाली गलतियों को चेक करने के लिए जिम्मेदार नहीं हो सकते। ये जवाबदेही एसोसिएट एडिटर, सीनियर प्रोड्यूसर और शिफ्ट प्रभारियों पर होती है। वहीं, निषिद्ध सामग्रियों का प्रसारण न हो, इसका ध्यान रखना एडिटर, आउटपुट एडिटर, डिप्टी एग्जडेक्य़ूटिव एडिटर, एसोसिएट एग्जेक्यूटिव प्रोड्यूसर के स्तर का है। समाचार चैनलों में खबरों के संपादन और उनसे जुड़े कार्यक्रमों की तैयारी का खांटी संपादकीय जिम्मा प्रोड्यूसर जैसे निचले दर्जे के कर्मचारियों पर होता है। निचले दर्जे के कर्मचारी खबरों स्क्रिप्ट लिखने , उनमें काट-छांट, अनुवाद और उनकी वीडियो एडिटिंग का काम करते हैं और वरिष्ठ यानी शिफ्ट प्रभारी, सीनियर प्रोड्यूसर, उनके काम की जांच करते हैं, उन्हें सुपरवाइज करते हैं। करंट अफेयर्स कार्यक्रमों के कंसेप्ट, रूपरेखा और नामकरण पर और भी वरिष्ठ संपादक विचार करते हैं। इन मुद्दों पर मंजूरी देना खुद संपादकीय प्रमुख या दूसरे अधिकृत संपादकों का काम है। ऐसे में संपादकीय प्रमुख से लेकर सबसे निचले स्तर तक पिरामिड के रूप में संपादकीय व्यवस्था समाचार चैनलों में काम करती है। ये ऐसी व्यवस्था है, जिसमें निचले स्तर पर होनेवाले बदलावों से ज्यादा फर्क नहीं पड़ता यानी सैनिक बदलते रहते हैं, लेकिन सेना बरकरार रहती है, वहीं अगर सबसे ऊपर बदलाव हो, तो फिर मध्यम स्तर पर काफी उलटफेर देखने को मिल सकता है और चैनल की रीढ़ भी टूट सकती है। ऐसे में संपादकीय प्रमुखों की नियुक्ति या उन्हें हटाए जाने के बाद कुछ वक्त तक चैनलों में अनिश्चितता, उलझन और असमंसज की स्थिति बनी रहती है, Mid-level पर भी बदलाव शुरु हो जाते हैं, नई टीमें बनने लगती हैं, जिससे चैनल के काम काज पर भी असर पड़ता है। ऐसे में जरूरी ये है कि जो भी व्यक्ति संपादकीय प्रमुख की कुर्सी पर हो, वो सभी कर्मचारियों को विश्वास में लेकर काम करे। साथ ही चैनल में एक ऐसी व्यवस्था बनाई जाए, जिसके तहत किसी कोर टीम के बजाय अलग-अलग विभागीय स्तर पर  जिम्मेदारियां तय हों, ताकि कर्मियों को विकास का मौका भी मिले और ऊपर से बदलाव होने पर दीवार दरकने की संभावना न रहे। ऐसी व्यवस्था में संपादकीय प्रमुख को रिंगमास्टर के समान हर विभाग पर निगरानी रखनी होगी और चैनल में 24 घंटे प्रसारण के दौरान रोज होनेवाली चिल्ल-पों से छुटकारा पाकर कुछ हद तक सांस लेने का मौका मिल सकता है । ये मुद्दा प्रबंधन और संपादकीय प्रमुख को मिलकर तय करना होगा क्योंकि आखिकार कंटेट के प्रबंधन के लिहाज से कोई संपादकीय प्रमुख किस तरह काम चलाना चाहता है, ये तो उसी को तय करना होगा।
-कुमार कौस्तुभ
25.04.2013, 7.15 AM

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