10 जून
विश्व नेत्रदान दिवस
विश्व नेत्रदान दिवस हर वर्ष 10 जून को मनाया जाता है। इस दिन का उद्देश्य नेत्रदान के प्रति लोगों में जागरूकता फैलाना और नेत्रदान को प्रोत्साहित करना है। भारत समेत दुनियाभर में लाखों लोग कॉर्निया (नेत्रपटल) की क्षति के कारण अंधत्व से ग्रस्त हैं। नेत्रदान से एक व्यक्ति की दोनों आँखें दो नेत्रहीनों को नई रोशनी दे सकती हैं। अधिकतर मामलों में हर कोई नेत्रदान कर सकता है. इसमें ब्लड ग्रुप, आंखों के रंग, आई साइट, साइज, उम्र, लिंग आदि से कोई फर्क नहीं पड़ता है. डोनर की उम्र, लिंग, ब्लड ग्रुप को कॉर्नियल टीश्यू लेने वाले व्यक्ति से मैच करने की कोई आवश्यकता नहीं होती है. जिन रोगियों ने मोतियाबिंद, कालापानी या अन्य आंखों का ऑपरेशन करवाया है, वे भी नेत्रदान कर सकते हैं. नजर का चश्मा पहनने वाले, मधुमेह, अस्थमा, उच्च रक्तचाप और अन्य शारीरिक विकारों जैसे सांस फूलना, हृदय रोग, क्षय रोग आदि के रोगी भी नेत्रदान कर सकते हैं. कई सारे गंभीर रोगों से पीड़ित व्यक्ति नेत्रदान नहीं कर सकते हैं. जैसे एड्स, हैपेटैटिस, पीलिया, ब्लड केन्सर, रेबीज (कुत्ते का काटा), सेप्टीसिमिया, गैंगरीन, ब्रेन टयूमर, आंख के आगे की काली पुतली (कार्निया) की खराबी हो, जहर आदि से मृत्यु हुई हो या इसी प्रकार के दूसरे संक्रामक रोग हों, तो इन्हें नेत्रदान की मनाही होती है. भारत में 1985 में, स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय (MoHFW) ने राष्ट्रीय नेत्रदान पखवाड़े की शुरुआत की, जो हर साल 25 अगस्त से 8 सितंबर तक मनाया जाता है.
सभ्यताओं के बीच संवाद हेतु अंतर्राष्ट्रीय दिवस
सभ्यताओं के बीच संवाद हेतु अंतर्राष्ट्रीय दिवस हर वर्ष 10 जून को मनाया जाता है। इसका उद्देश्य विभिन्न सभ्यताओं, संस्कृतियों, धर्मों और समुदायों के बीच संवाद को प्रोत्साहित करना है, ताकि वैश्विक शांति, सहिष्णुता और आपसी समझ को बढ़ावा दिया जा सके। इस दिवस की स्थापना संयुक्त राष्ट्र महासभा ने की थी, ताकि दुनिया भर के लोगों को यह समझाया जा सके कि सांस्कृतिक विविधता मानव समाज की शक्ति है, न कि कमजोरी। जब विभिन्न सभ्यताएं आपस में संवाद करती हैं, तो वे एक-दूसरे से सीखती हैं, संघर्ष की बजाय सहयोग को प्राथमिकता देती हैं। 7 जून 2024 को संयुक्त राष्ट्र महासभा ने प्रस्ताव A/RES/78/286 को अपनाया , जिसके तहत 10 जून को सभ्यताओं के बीच संवाद का अंतर्राष्ट्रीय दिवस घोषित किया गया। चीन द्वारा प्रस्तावित और 80 से अधिक देशों द्वारा सह-प्रायोजित, प्रस्ताव इस बात पर जोर देता है कि सभी सभ्यतागत उपलब्धियाँ "मानव जाति की सामूहिक विरासत" का गठन करती हैं। यह सभ्यतागत विविधता का सम्मान करने के महत्व को रेखांकित करता है और वैश्विक शांति बनाए रखने, साझा विकास को आगे बढ़ाने, मानव कल्याण को बढ़ाने और सामूहिक प्रगति हासिल करने में "बातचीत की महत्वपूर्ण भूमिका" पर प्रकाश डालता है। प्रस्ताव में सार्वभौमिक मूल्यों के बारे में जागरूकता और समझ को बढ़ावा देने में संवाद की आवश्यक भूमिका को स्वीकार किया गया है, जैसा कि संयुक्त राष्ट्र चार्टर और मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा में रेखांकित किया गया है, तथा इस बात की पुष्टि की गई है कि सभ्यतागत उपलब्धियां मानवता की साझी विरासत का हिस्सा हैं।
महाराजा सुहेलदेव का विजय दिवस
10 जून 1034 को बहराइच के नानपारा मैदान में हुए युद्ध में महाराजा सुहेलदेव ने महमूद गजनवी के सेनापति आक्रांता सैयद सालार गाजी को मार गिराया था। मोहम्मद गजनवी के सेनापति सैयद सालार मसूद गाजी तीन लाख की विशाल सेना के साथ भारत में लूट और विध्वंस फैलाते हुए आगे बढ़ रहा था तब बहराइच में महाराजा सुहेलदेव राजभर ने अपराजेय समझे जाने वाले आक्रांता सालार गाजी को परास्त किया। यह विजय भारत के सम्मान का प्रतीक था। महाराजा सुहेलदेव ने आक्रांता सालार मसूद गाजी की सेनाओं को हराकर न केवल सैन्य विजय प्राप्त की थी, बल्कि भारत की सांस्कृतिक और आध्यात्मिक विरासत की रक्षा की थी. कुटिला नदी के तट पर हुए राजा सुहेलदेव के नेतृत्व में हुए इस धर्मयुद्ध में उनका साथ देने वाले राजाओं में प्रमुख थे रायब, रायसायब, अर्जुन, भग्गन, गंग, मकरन, शंकर, वीरबल, अजयपाल, श्रीपाल, हरकरन, हरपाल, हर, नरहर, भाखमर, रजुन्धारी, नरायन, दल्ला, नरसिंह, कल्यान आदि. वि.संवत 1091 के ज्येष्ठ मास के पहले गुरुवार के बाद पड़ने वाले रविवार (10.6.1034 ई.) को राजा सुहेलदेव ने उस आततायी का सिर धड़ से अलग कर दिया. तब से ही क्षेत्रीय जनता इस दिन चित्तौरा (बहराइच) में विजयोत्सव मनाने लगी.
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